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________________ में आ गयी। इसके कुछ दिन बाद वहाँ आचार्यजी का आगमन हुआ। उन्होंने सुल्तान से मिलकर अपने स्वप्न का सारा वृत्तान्त कर सुनाया। तुमान ने कहा, 'आक भगवान् की मूर्ति को लेकर मैं क्या करूँगा? सारा खजाना देखा जा सकता है । यदि वहाँ हो तो ले जाइए।' खजाने में यह मूर्ति कहीं नहीं दिखाई पड़ी। तब अचानक सुल्तान को सूझा कि वह मूर्ति अभी बेटी के पास ही होगी। उसकी अनुपस्थिति में सुल्तान आचार्यजो को वहाँ ले गये। वह देखो, मेरे स्वामी वो हैं', कहते हुए आचार्यजी उस ओर लपके और मूर्ति को उठाकर छाती से लगा लिया। फिर बोले, 'तुम मिल गये, मेरी सारी थकावट मिट गयी। फिर सुल्तान से पूछा, 'अब तो यह आपके अधीन है, इस पर आपका अधिकार है। इसका मूल्य क्या है, बताइए।' 'इस सबका मूल्य मांगे, ऐसा हीन नहीं यह सुल्तान। इसके साथ मैं आपको कुछ भेंट भी देना चाहूँगा।' कहकर सुल्तान ने दीनारों से भरी एक परात मंगायी चेलुवनारायण की मूर्ति के साथ उन दीनारों को आचार्यजी को उन्होंने दान में दे दिया। आचार्यजी ने सन्तुष्ट होकर, वह मूर्ति मेरे हाथ में देकर मुझे इधर भेज दिया। वहाँ से बंग देश जाकर एवं नदी-समुद्र, संगम-स्थान देखकर लौटने की बात कहकर वे उस ओर प्रस्थान कर गये।" एम्बार ने संक्षेप में उस मूर्ति का तथा उसकी प्राप्ति का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। शान्त चित्त से शान्तलदेवी ने सब सुना और कहा, "महात्माओं का मार्ग महात्मा ही जानते हैं। परन्तु उनके अनुयायियों को भी वह मालूम होता तो कितना अच्छा होता!" "यह तो बहुत बड़ी बात है! तब सब महात्मा ही हो जाते।" एम्बार के स्वर में एक तरह का भावावेग था। "तो तब महात्माओं का मूल्य न होता-यही आपका तात्पर्य है?" "और क्या? आचार्यजी ने जो स्वप्न देखा, यदि मैं उसे देखता तो मैं उसपर ध्यान ही नहीं देता। जब उन्होंने यह बताया, तो हम सबने उस यात्रा पर जाने के लिए मना ही कर दिया था। फिर भी वे अपनी बात पर अटल हा रहे। मेरे स्वामी मुझे बुलाएँ और मैं न जाऊँ तो मैं कैसा भक्त? चाहे जो भी हो जाए, मैं तो जाऊँगा ही।' कहकर, हठपूर्वक वह चले गये। इस मूर्ति की प्राप्ति उनके अटल विश्वास का ही फल है।" एम्बार बोला। "आचार्यजी यदुगिरि कब पधारेंगे?'' "एक पखवारे में शायद आ जाएँ। वह जगन्नाथ का दर्शन कर कोणार्क भी जाएँगे। वहाँ सूर्य-मन्दिर का दर्शन कर लौटने की उनकी इच्छा है । बंग-समुद्र की ओर से जब लौटेंगे तब तिरुमल होते ही आएंगे111 "आप भी उनके साथ होते तो अच्छा होता!" पट्टमहादेवी शान्तला : भाग सार :: 73
SR No.090352
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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