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________________ "असूया ही एक ऐसी बुरी प्रवृत्ति है, दण्डनायिकाजी । वह एक बार मन में जम जाए तो वह नीच-से-नीच कार्य करवा लेती है। इसके लिए आपकी सास दण्डनायिका चामध्वेजी ही प्रमाण हैं न? उस असूया का फल उन्होंने ही भोगा।" "फिर भी महामातृ श्री की उदारता कितनी महान् थी ! मेरी सास के मन की तरह उनका मन भी कलुषित होता तो हमारे वंश को ही निर्मूल कर दिया जा सकता था।" . "क्षमा, उदारसा, प्रेम इस त्रिसत्र से उनका हृदय सहा परिशन रहा। ऐसा हृदय प्राप्त करना हो तो एक जन्म में सम्भव नहीं। अनेक जन्मों का फल है वह। प्रत्येक व्यवहार में उनकी रीति को देखकर मैं बहुत प्रभावित हुई हूँ। दण्डनायिकाजी, सचमुच मैं बहुत भाग्यवती हूँ। अच्छे माँ-बाप और अच्छे सास-ससुर, अच्छा पति इन्हें पाने का सुयोग भला कितनों को मिलता है!" "माता-पिता और सास-ससुर की बात तो ठीक है परन्तु आपके साथ और तीन स्त्रियों से विवाह करनेवाले सन्निधान क्या उन्हीं बुजुर्गों की परम्परा में ढले माने जा सकते हैं?" दण्डनायिका ने कुछ संकोच से कहा। "उनके बाहरी रूप ने अनेक के मन में उनके प्रति संशय पैदा किया है। सच तो यह कि उन लोगों को उनके अन्तर का परिचय ही नहीं। हम दोनों की यह जोड़ी सन्निधान के जन्म-दिन के अवसर पर, उस सुदूर अतीत में महामातृश्री को जो पचन दिया था उसके कारण, बहुत ही पवित्र है। मैं जो सुख पा रही हूँ वह मानसिक सुख है । हम दोनों एक-दूसरे को अच्छी तरह समझते हैं । इस ज्ञान की छाया में कोई बाहर की चीज बाधक नहीं बनी है। अन्य रानियों के साथ सन्निधान के रहने पर यदि मुझमें ईर्ष्या उत्पन्न होती तो मेरा जीवन नरक ही बन जाता, दण्डनायिकाजी। आप चाहे विश्वास करें या न करें, हमारे दाम्पत्य जीवन में सन्तान-प्राप्ति के पश्चात् भी कुछ काल तक हमने जिस सुख का अनुभव किया, उसकी स्मृति हो हमारे समूचे जीवन को हराभरा रख रही है। शरीर-पोषण के लिए जितना जरूरी है उतना आहार-सेवन करना भी बन्द कर 'सल्लेखना व्रत' के द्वारा सायुज्य को प्राप्त करनेवाले जैनधर्मी के लिए कौन-सा त्याग कठिन है? दाम्पत्य प्रेम का फल सन्तान है। वह मुझे प्राप्त है। और कौन-सी आकांक्षा हो सकती है, आप ही बताइए? दाम्पत्य जीवन में शरीर और मन को एक-दूसरे के साथ संयुक्त कर ऐक्य साधना करने का फल ही सन्तान है न? सन्निधान ने इस विषय में सम्पूर्ण तृप्ति देकर मुझे कृतार्थं किया है।" "आपका सौभाग्य है कि अभी तक अन्य रानियों की सन्तान नहीं हुई। उन्हें सन्तान प्राप्त होने पर, उन्हें उकसा कर ईर्ष्या उत्पन्न कर, लालच पैदा करने वाले लोग सिर उठाएँगे। ऐसी स्थिति सहज ही उत्पन्न हो सकती है। इसका डर होना अस्वाभाविक तो नहीं?" "सन्निधान इस विषय में अटल रहेंगे तो रानियाँ क्या करेंगी?' पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 65
SR No.090352
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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