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हमारी माँ का सारा किस्सा सुनाकर और उससे फल जो हमें मिला, उसको देखते हुए
अगर तुम्हारे मुँह से ऐसी बात निकले तो क्या कहना चाहिए ? आगे चलकर कुछ हो
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जाने की आशंका करके अभी से कुछ करने लग जाना मूर्खता की चरम सीमा होगी।" 'कुछ भी हो, जो मैंने कहना चाहा था, कह दिया है। अब पट्टमहादेवीजी की मर्जी।"
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'तुम्हारे मन को भी दुख न हो। कभी-कभी तुम्हारी सूझ पूर्ण अन्तः प्रेरित होती हैं, इसलिए मैं तुमको एक वचन देती हूँ। इस कटवप्र पर एक शान्तिनाथ बर्साद की स्थापना कराऊँगी जिससे यदि कभी तुम्हें ऐसा भान हो कि मेरी और मेरी सन्तान की कोई बुराई करता है, तो तुम्हें या तुम जैसे लोगों को यहाँ मानसिक शान्ति मिले और वे सन्मार्गी बनें। ठीक है न?" शान्तलदेवी ने कहा ।
यह उत्तर उसको पूर्णरूप से सन्तोषजनक नहीं लगा। यही सिर हिलाकर सूचित किया कि कम से कम मेरी बातों का इतना तो मूल्य रखा।
थोड़ी देर तक कोई कुछ न बोला। कुछ क्षण बाद चामलदेवी बोली, " स्थपतिजी को अब अपनी कहानी शुरू करनी चाहिए न ?"
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'अपनी कहानी कहने से पहले मुझे एक बात स्पष्ट करनी पड़ेगी। किसी एक मौके पर मैंने जल्दबाजी की। गलत कदम रखा। इसका कारण मेरी पत्नी या पुत्र नहीं जानते। उन लोगों ने समझा होगा कि मैं पागल होकर किसी से कहे बिना चल पड़ा था। अभी तक उन्हें कारण मालूम नहीं। यह जो समागम हुआ न, मैं अत्यन्त योग्य स्थान पर अच्छे काम में हूँ --- इस बात ने उन्हें तृप्ति दी है, खुश रखा है। फिर उस पुरानी किसी भी बात को याद न करेंगे, उसे एक बुरे स्वप्न की तरह विस्मृत रखेंगे, यही वे कहते हैं। एक तरह से वह सही हैं। यदि मुझे पट्टमहादेवीजी का सम्पर्क प्राप्त न हुआ होता तो मैं उसी को ठीक मानकर अपनी गलती को छिपाये रखता। यदि ऐसा होता तो यह मेरे पुत्र और पत्नी के साथ धोखा करने के बराबर होता, इसके बदले गलती को स्वीकार करने का साहस करना सबसे बड़ा प्रायश्चित्त है - इस सत्य को मैंने पट्टमहादेवीजी से जाना है। इसलिए अब मैं जो कहने जा रहा हूँ वह मेरी पत्नी और पुत्र के लिए त्रासदायक हो सकता है। मैं समझता हूँ कि वे उसे सह लेंगे और मुझे क्षमा करेंगे।" बात रोककर स्थपति ने उनकी ओर देखा ।
"उन दोनों को सारी जानकारी है। मैंने उन्हें वे सारी बातें बता दी हैं जिन्हें मैं 'जानती थी। वह सब सुनकर जैसा आपने कहा, उन्हें बहुत दुख हुआ। फिर भी इस पुनर्मिलन की खुशी में उस दुःख को उन्होंने नगण्य मान लिया। इसलिए अब उन्हें कोई वेदना नहीं होगी। अपना सर्वस्व त्याग कर, नग्न अवस्था में मुस्कराते हुए यह गोम्मटस्वामी सामने खड़े हैं; उनके समक्ष एवं इन बुजुगों के सामने आप स्वयं अपनी कहानी कह देंगे तो आपके मन में भी कोई चुभन नहीं रह जाएगी।" शान्तलदेवी ने कहा ।
पट्टमहादेवी शान्तला भाग चार 53