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________________ अकारण अपनी ओर से हमला करना ठीक नहीं मालूम पड़ता। इसलिए हमले की इस प्रवृत्ति को रोक लें तो मुझे अपार आनन्द होगा। परन्तु यह सन्निधान के आत्मगौरव को छेड़ने की-सी बात हो सकती है। विनती मेरी, निर्णय सन्निधान का 1 दर्शन देने की मेरी प्रार्थना को स्वीकार करें।' बिट्टिदेव ने पत्र पढ़ा । 'रणव्यापार में सदा आगे रहनेबाली अधिदेवी के नाम से विख्यात और मुझ ही को हरा देनेवाली पट्टमहादेवी अब युद्ध-संन्यास चाहती हैं, यह आश्चर्य है ! उसी वजह से सबको एक बार देखने की इच्छा प्रकट की है। पट्टमहादेवी के मन को क्या हो गया है ? इस सवाल का कोई जवाब नहीं ?' फिर से पत्र पढ़ा'वास्तव में मैं उनकी यह प्रार्थना भूल ही गयी थी।''वह तो कभी कुछ भी भूलनेवालो नहीं, ऐसी उत्तम बात को भूल गयीं तो निश्चित ही उसके मन पर कोई बोझ होगा! जब हमसे मिलने आयी थीं तब भी शिवगंगा के धर्मदशी की विनती की बात नहीं बतायी। अन्यान्य सभी बातों पर उनसे चर्चा हुई, पर वह बात भूल गयीं, तो यह बड़ा ही आश्चर्य का विषय है!' पत्र की अन्य बातों के सन्दर्भ में भी उनकी बम्मलदेवी से चर्चा हुई। उन्होंने कहा, "पट्टमहादेवी के मनोभाव ही बदल गये हैं। उत्साह और आशा की निधि ही रही। 1.11 ही क्ष्यों, ना मिरमिनीपोरान हु-पीलानो हैं। जब वे हामुंगल पधारी थीं तब भी उनकी बातचीत इस लौकिक व्यवहार से कहीं बहुत दूर ही रही आयी। उनकी बातों में तब निर्मोही का भाव ही निरन्तर झलकता रहा। हमारे साथ विवाह की स्वीकृति देने के बाद उन्होंने हमसे एक बात कही थी। अपने-अपने स्वार्थ के कारण हम सन्मिधान को दुःख दें तो वह हम सबके लिए हानिकारक बनेगा। सन्निधान हमारे लिए एक निधि हैं। उस निधि का संरक्षण होना चाहिए । शरीर अलगअलग होने पर भी हमें एक मन होकर रहना होगा, तभी यह कार्य साधा जा सकता है। हम उनके वचन का पालन करती हुई भिन्न शरीर होकर भी एक-मन होकर रहती आयी हैं। परन्तु..." "परन्तु...? परन्तु क्या हुआ?" "इस प्रश्न का उत्तर कहाँ? छोटी रानी से ही सन्निधान का उत्तर मिल सकता है। सन्निधान को मालूम नहीं, विजयोत्सव की समाप्ति के बाद जब हम इधर आये तब राजधानी में क्या सब हुआ, इसका सारा ब्योरा हामुंगल में रानी पगलदेवी ने दिया था। एक दिन भोजन के समय, भोजन के बीच ही पट्टमहादेवीजी उठकर चली गर्यो । गहरी वेदना हुए बिना वे ऐसा करनेवाली नहीं हैं।'' "अच्छा! क्या हुआ था?" बम्मलदेवी ने वह सारा वृत्तान्त कह सुनाया जिसे पद्मलदेवी ने कहा था और बताया, "देखिए, छोटी रानी का मन हमसे कितनी दूर हैं ! इसके लिए किसी दूसरे पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 445
SR No.090352
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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