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उन्हीं के पास रहनी चाहिए। यदि वह मुद्दला के पास थी तो उन्होंने ही उसके हाथ में दी होगी । यों देने का कोई कारण मेरी तो समझ में नहीं आ रहा है। यदि रानी ने नहीं दी हो कां उसी ने चोरी को होगी नहीं तो बहीनी होगी। इसलिए इसकी तहकीकात आप जाकर स्वयं करें। चोरी की गयी हो तो उनकी अंगूठी उन्हें दे दें तथा इस चोरी के कारण का पता लगाएँ। यदि वह जाली हो तो इसे किसने बनाया, इस बात का पता लगाएँ' यह आज्ञा दी है। इसी का पालन करने के लिए आया हूँ।" मादिराज की दृष्टि रानी लक्ष्मीदेवी की उँगलियों पर ही रही।
"मैं अपने पिताजी से इसी विषय पर बात कर रही थी। मेरी अँगूठी तो मेरे ही पास है।" लक्ष्मीदेवी ने कहा।
तिरुवरंगदास के माथे पर पसीने की बूँदें झलकने लगीं। उसका चेहरा फक पड़ गया। उसने मन-ही- -मन कहा, 'यह बेवकूफ है। वैदिक की लड़की होशियार हो भी तो कैसे ? जल्दबाजी में कुछ का कुछ कह बैठी न ? अब मैं मुँह भी नहीं खोल सकता । '
"ऐसा है ? तो जैसा पट्टमहादेवी ने कहा, यह अँगूठी जाली ही होनी चाहिए।" "हाँ, हो सकता है।" लक्ष्मीदेवी ने कहा ।
' इस पर विश्वास करके धूल ही फाँकनी पड़ेगी। इसे समझाकर कहा था कि वहाँ जो अंगूठी है उसे किसी-न-किसी उपाय से मँगवा ले। मेरे इस कहने का मतलब ही क्या था ? मेरा उद्देश्य था कि उस अँगूठी के विषय में किसी को कुछ पालूम न पड़े। अब इस बात का रुख किस तरफ मुड़ेगा ?' यही सब सोचकर तिरुवरंगदास का मन छटपटाने लगा। मगर वह मौन ही बैठा रहा ।
" तो एक काम करेंगे। अभी यहाँ के सभी सुनारों को यहाँ बुलवा लेंगे !" "सुनार क्यों ?" लक्ष्मीदेवी ने पूछा।
"यदि यह जाली हैं तो इसे यहाँ किसी सुनार ने बनाया होगा। राजमहल के किसी जिम्मेदार अधिकारी के कहे बिना, रानी की नामांकित अँगूठी को कोई नहीं बना सकता। और ऐसे कार्य के लिए उससे सम्बन्धित सभी बातों की उसे जानकारी होनी चाहिए। इस तरह की जानकारी न होने पर उसको दण्ड भोगना पड़ेगा।"
'हाय, हाय ! यह बात पहले मालूम होती तो आवश्यक बन्दोबस्त किया जा सकता था।' तिरुवरंगदास अन्दर-ही-अन्दर छटपटाने लगा ।
"ऐसा हो तो बुलवा लीजिए। मैं चुपचाप राजमहल में पड़ी हूँ, और यह सब कुतन्त्र हो गया ! इन अपराधियों को दण्ड मिलना ही चाहिए।"
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'जो आज्ञा । इसके लिए राजपुरुष भेजे जा चुके हैं। यहाँ के व्यवस्था अधिकारी को मैंने पहले हो खबर दे दी थी। उन सभी को अब हुल्लमय्याजी यहाँ बुलवा लाएँगे।”
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार: 433