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________________ . .-. .. होनेवाले संघर्ष को देखने की मेरी किंचित् भी इच्छा नहीं है।" "कुछ बातें सुनकर हमें ही हैरानी हुई है, तब आपका क्या होगा? इस राज्य में ऐसा कौन हैं जो आपसे उपकृत न हुआ हो? आपकी उदारता का स्वाद किसको नहीं मिला? ऐसे लोग भी कूटनीति के वशवर्ती हो जाएँ, तो मानसिक दुःख का होना सहज ही है। इन सभी बातों को मन में रखकर धुलते रहने की अपेक्षा सन्निधान के साथ खुले दिल से विचार-विमर्श कर लेना अच्छा होगा।" "ऐसा न समझें कि विचार-विमर्श नहीं किया है। सभी परिस्थितियों से वे भी परिचित हैं। इसीलिए उन्होंने विजयोत्सव के अवसर पर भविष्य की व्यवस्था के बारे में घोषणा की थी।" "तो क्या उनकी उस घोषणा के पीछे आपकी प्रेरणा थी?" "प्रेरणा नहीं थी। जो कुछ मुझे लगता है सो समय-समय पर मैं सदा ही खुले दिल से कहती आयी हूँ। वह भी मोम-और मेरीगो पारेनिन कि उन्हों। शायद ऐसा निर्णय लिया है। वास्तव में मैंने कभी सोचा तक नहीं था कि वे इस तरह की घोषणा उस दिन करेंगे।" "अब तक जो भी कार्य हुए और विजयोत्सव में जो कुछ देखने को मिला उससे यही सिद्ध होता है कि जनता राजमहल के प्रति और सिंहासन के प्रति पूर्ण निष्ठावान हैं। ऐसा नहीं लगा कि वह किसी व्यक्ति विशेष के प्रति निष्ठावान रहेगी।" "ऐसे समारोहों में तत्काल स्फुरित उत्साह के फलस्वरूप लोग ऐसा आचरण करते हैं। बाद को उनके बरताव में परिवर्तन न होगा, ऐसा कैसे कह सकते हैं ? नौकरचाकर न भी चाहें, बहुत-सी बातें उनके कानों में पड़ेंगी ही। वे भी तो आखिर मनुष्य ही हैं। कभी नहीं कुछ बोल आता है। इससे उनकी हत्या तक कर देने का सोचने लगें तो इससे भी बढ़कर मानव का नीचता और क्या हो सकती है ? बेचारी पुद्दला की हत्या नीचता की चरम-सीमा है । उसे रास्ते पर लाया जा सकता था। उसे सत्य बात समझाया जा सकती थी। बूतुगा एक साधारण मनुष्य था। पहले जब पिरियरसीजी बलिपुर में अज्ञातवास में र्थी, तब उसने क्या-क्या बातें कही थीं सो आपको मालूम नहीं? चाहते तो उसे शूली दे सकते थे। ऐसा न करके उसे अच्छा मनुष्य बनाया गया। मानव के जीवन को यो क्रूरता से समाप्त कर देने का हिंसाचार इस राज्य में शुरू हो गया तो अहिंसा पर विश्वास करनेवाले हम जैसों के लिए जगह कहाँ? मुद्दला की हत्या की बात जब से सुनी तब से मन मुक्ति की ओर बढ़ने लगा है।" "हर दिन मौतें होती ही रहती हैं, हत्याएँ- आत्महत्याएँ भी होती रहती हैं। यह दूसरी बात है कि हमें सब बातें मालूम नहीं पड़ती। अब इन्हीं को लेकर मन-हो-मन घुलते रहें तो जिएं कैसे?" "यह बात सब जानते हैं कि जन्म के साथ ही मृत्यु लगी रहती है। उस मृत्यु 426 :; पट्टमहादेनी शान्तला : भाग चार
SR No.090352
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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