SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 408
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर लिया है-यह अत्यन्त हर्ष एवं सन्तोष की बात है। राज्य का इस तरह से यह विकास कुछ लोगों की असूया का कारण बना हुआ है। वे राज्य की एकता को तोड़ने के लिए धर्म के बहाने जनता में भेदभाव पैदा करने का प्रयत्न कर रहे हैं ! सन्म की आन्तरिक शक्तियाँ इस तरह की एकता को तोड़ने में निरत बाहरी शक्तियों द्वारा दिये जा रहे प्रलोभन के वश में होती दिखाई पड़ती हैं। इन परिस्थितियों में मनसा वाचाकर्मणा मैं राष्ट्र की एकता को बनाये रखने, धर्म सहिष्णुता को बढाने, अविच्छिन्न रुप से राष्ट्रप्रेम की भावना जनता में भरते रहने, तथा राष्ट्र-विरोधी शक्तियों का दमन कर राष्ट्र-रक्षा के प्रयास में सदैव तत्पर रहूँगा। राष्ट्र की जनता के और अपने सन्निधान के समक्ष पोरसल सिंहासन की सौगन्ध खाकर, अपने आराध्यदेव को साक्षी मानकर, मैं अपनी इस प्रतिज्ञा की घोषणा करता हूँ।" शिष्टाचार का पालन जो करना था इसलिए कुछ लोगों के मुँह से प्रतिज्ञा-त्रचन केवल शिष्टाचार के नाते ही निकले, बृदय से नहीं। अन्त में महाराज घिट्टिदेव उठ खड़े हुए। चारों और फैले जन-समुदाय को देखा। स्वत; दोनों हाथ जुड़ गये, शरीर कुछ झुक गया। उपस्थित जन-समुदाय को झुककर अभिनन्दन किया। तालियाँ ऐसे बज उर्ती कि आसमान को भेदकर दसों दिशाओं में गूंज गयीं। लोगों के मुँह से निकला-'पोय्सल वंश"..."चिरायु हो।" "महाराज बिट्टदेव"..."अमर हों।" "पट्टमहोदवी शान्तलदेवी"..."जन-मन में वास करें।" "पोय्सल सन्तान"..."चिरजीवी हो।" यह सब नारे अनपेक्षित होते हुए भी लोगों के हृदय से निकल रहे थे। महाराज ने शान्त रहने को कहा। सर्वत्र मौन छा गया। महाराज ने कहा, "महानुभाव! आप लोगों ने हमारे वंश पर जो अपार प्रेम और विश्वास रखा है, उसके लिए राजपरिवार आप सबका ऋणी हैं। आप सभी को ज्ञात है कि हम अपने माता-पिता की द्वितीय सन्तान हैं। कुल की रीति से वास्तव में यह सिंहासन मेरे अग्रज बल्लाल महाराज को सन्तान को मिलना चाहिए था। परन्तु भगवान् की इच्छा कुछ दूसरी ही थी। वे नि:सन्तान ही परलोक सिधार गये। हमारा सिंहासनारोहण एक आकस्मिक घटना था; हमें इस सिंहासन की चाह नहीं रही। फिर भी तन-मनवचन से इस दायित्व को ओढ़ा । इसकी प्राप्ति के बाद, हमारे पितामह बिनयादित्यदेव, पिता एरेयंग प्रभु जिस मार्ग पर चले उसी पर हम अग्रसर हुए। एक ओर उनका आशीर्वाद रहा है, दूसरी ओर इस राज्य की प्रजा का अदम्य उत्साह और बल मुझे मिला है। इन दोनों के कारण राष्ट्र की प्रगति, उसका विस्तार एवं समृद्धि सम्भव हो सकी हैं। प्रजा की सम्पन्नता बनाये रखने तथा उसे सुखी रखने में हम कृतकार्य हुए। सब प्रकार से समता के आलोक में ही मानव का उद्धार है-इस भावना के विकास के साथ 412 :: पट्टमहादेवी शान्तला ; मात्र चार
SR No.090352
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy