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________________ का अनुभव, वर्तमान की प्रज्ञा एवं भावी का ज्ञान, इन तीनों का प्रतिनिधि है कलाकार । भगवान ने आपके हाथों से बहुत ही उत्तम कार्य करवाया है। आप दीर्घायु बनें, आएको कीर्ति चिरस्थायी रहे।" __ "आप जैसे शिल्पाचार्यों की छाया में हम जैसे रहें, यही क्या कम है ? अभी से इस शैली के शिल्प को लोग पोयसल शिल्प, जकणाचार्य-शिल्प कहने लगे हैं। वही नाम रहा तो उसमें हम सभी सम्मिलित हैं। मैंने एक गलती की है, उसके लिए क्षमाप्रार्थी हैं।" "वह क्या है? "आप महान् हैं, आपको अपने नाम की चिन्ता नहीं, विरुदावली की चाह नहीं। आप निर्लिप्त हैं। कहीं भी अपना नाम तक अंकित नहीं किया। परन्तु मैं ?" "अंकित नहीं भी किया तो क्या हुआ? मेरे साथ काम करनेवाले बहुतों ने अपने-अपने नाम अंकित कर रखे हैं।" "उन सबने अपने विरुद और नाम मात्र लिख रखे हैं। मैं भी कितना मूर्ख हूँ, मैंने उन पर एक सींग भी जड़ दिया है। लगता है वह गलत है।" "सो क्या?" "आइए, दिखाऊँ।" वहाँ जाकर देखने पर जकणाचार्य ने कहा, "यह तो सच है और सचाई से किसी को कभी डरना भी नहीं चाहिए। दोषपूर्ण शिला से मैंने विग्रह बनाया। शिला दोषपूर्ण है, इस सत्य को मेरे ही बेटे ने मेरे ही सामने स्पष्ट दिखा दिया। हम दोनों ने सत्य के सामने सिर झुकाया न? वेलापुरी आपको ठीक नहीं लगी, आपने यह बात स्वयं रूपित की है। भविष्य में कोई इस बात पर विचार करे कि आपको वेलापुरी क्यों ठीक नहीं लगी तो करता रहे । इस मन्दिर का निर्माता मैं ही था, इस बात पर भी भविष्य में लोग शंका करें, यह भी सम्भव है। क्योंकि जब तक वह मन्दिर रहेगा, और वह मण्डूक-गर्भ चेन्निगरायस्वामी विराजमान रहेंगे तब तक हमारी यह गाथा भी प्रचलित रहेगी। यह गाथा एक दन्तकथा मानी जाएगी और इसके लिए साक्षी के अभाव में कुछ लोग इस पर अविश्वास भी करने लगेंगे। ऐसे भी लोग होंगे जिनके आलोच्य विषय हम खुद बनेंगे। दोडुगवल्ली के स्थपतिजी ने अपना नाम उत्कीरित करके एक ऐतिहासिक आधार स्थापित किया है। मैंने वेलापुरी में अपना चिह्न तक नहीं छोड़ा। आपने यहाँ के स्थपत्ति होने पर भी यह लिखा है कि वेलापुरी आपको रास नहीं आयी। तीनों बातें सत्य ही हैं। अच्छा काम किया, कोई हानि नहीं।" "न करते तो भी शायद अच्छा होता!" डंकण ने कहा। "पीढ़ी-दर-पीढ़ी विचार बदलते रहते हैं, इस बात के लिए यही प्रमाण है। हरीशजी के विचार भी मुझसे भिन्न हैं, मैं पुराना हूँ। तुम्हारी तरह भी वह नहीं सोचते। पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 405
SR No.090352
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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