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________________ आचन्द्रार्क स्थायी रहनेवाली शक्ति है। इसलिए यह कला पोय्सल कला ही होकर संसार में अमर रहे। मैंने इसकी परिकल्पना की, यह गर्व मुझे नहीं। इसे मैंने रूपित किया, ऐसा अहंकार मुझे नहीं। मेरी परिकल्पना को जिसने प्रेरणा दी वह कौन है ? परम्परा से प्राप्त समय के अनुसार परिवर्तित होकर रूपित होनेवाली यह कला ही तो है। परम्परागत प्रेरणा न हो तो परिवर्तित कल्पना के लिए स्थान कहाँ ? अतः यह शैली, हमारे वास्तुशिल्प के संसार में एक आयाम है। यह स्थायी रूप से ऐसी ही रहे, यह सम्भन्न नहीं । इससे भिन्न और परिवर्तित शैलियों का हमारे इस वास्तुशिल्प में विकास होना चाहिए. यह वास्तु के भविष्य का स्वागत संकेत पात्र है। मनुष्य स्वप्रतिष्ठा और अज्ञान के कारण iii करता है, इसासर में दो अनुदित है, इस बा । जानकारी मुझे हुई। इसके फलस्वरूप मुझे अब यह अच्छी तरह ज्ञात हो गया है कि उस जगदीश्वर के सिवा दूसरा कोई सर्वज्ञ नहीं। मैंने जिन दो शास्त्रों में अपने को विशेषज्ञ माना था, उन दोनों में मैंने ठोकर खायी। ठोकर खाकर चेत गया, सबका प्रेम पाया। इस महान् कार्य की साधना के लिए अपने दोनों हाथों को अनन्त हाथों में परिवर्तित कर सहायता देने वाले ये मेरे मित्र शिल्पीगण इसके कारण हैं। उनके अभाव में मैं शून्य के बराबर हैं। उनसे मेरी कल्पना को सिद्धि मिली है। इसलिए मैं इन सभो शिल्पियों का अत्यन्त ऋणी हूँ।" कहकर स्थपति ने सबको झुककर प्रणाम किया। ___ पट्टपहादेवी ने कहा, "मैं कुछ बोलना ही नहीं चाहती थी। स्थपतिजी ने एक बात कही, इस वजह से सन्निधान के समक्ष एक निवेदन करना चाहती हूँ। जो कला के विकास को पहचानने में सहायक बन सके, परम्परा और विकास एवं नयी कल्पनाओं के लिए जो मार्गदर्शन कर सके, ऐसा एक शिल्पविद्यालय यहाँ खोलने की अनुमति सन्निधान दें। और, उसे चलाने का उत्तरदायित्व स्थपतिजी लें इसके लिए उनसे अनुरोध किया जाए।" इस प्रस्ताव का विरोध ही नहीं हुआ। आज सारे दिन तिरुवरंगदास कीं भी अधिक प्रकट नहीं हुआ। या यह कहना बेहतर होगा कि किसी का ध्यान उसकी और गया ही नहीं। प्रात: होते ही उसने अपनी बेटों से मिलकर उससे यादवपुरी की और अपने प्रस्थान करने की बात कही। उसने कहा, "यह बात सन्निधान से कहें।" "वहाँ जाने पर वे कहेंगे, पट्टमहादेवी को बता दें। मुझे क्या पागल कुत्ते ने काटा है कि मैं एक जैनी के पास आऊँ?'' "क्यों पिताजी, उनसे आप असन्तुष्ट क्यों हैं?" 'मेरी उन्नति में वही तो पहले से रुकावट डालती आ रही है। जब तक उसका प्रभाव बना रहेगा, तब तक तुम्हारा कोई अस्तित्व ही नहीं। परसों सारे दिन किसी ने पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 43
SR No.090352
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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