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सेवा से चेन्नकेशव सुप्रीत हुए। गर्भ-गृह से घुघरू की ध्वनि सुनाई देने लगी। भगवान् को जो पुष्पमाला पहनायीं गयी थी, वह धुंघरू की लय पर धीरे-धीरे दक्षिण स्कन्ध पर से खिसकने लगी। यों खिसकती-खिसकती नीचे तक आ गयी। आगमशास्त्रियों ने उसे उठा लिया और मृत्य-सेवा समाप्त होते ही पट्टमहादेवी को देकर कहा, "चेन्नकेशव स्वामी द्वारा प्रदत्त यह प्रसाद स्वीकृत हो।" फिर महाराज की ओर मुंडकर बोले, "महानिमा एममिती आवार्य भी हमें सूचित किया था। सन्निधान को भी बताया होगा। स्वामी की कण्ठमाला इस तरह दक्षिण भुजा पर से होकर खिसके तो प्रतिष्ठा शास्त्रीय विधि से हुई है, ऐसा माना जाए। ठीक उसी समय अलग-अलग गाँवों से दो चर्मकार स्वामी के चरणों में समर्पित करने के लिए जो पादत्राण बनाकर लाएँगे, उन्हें गौरव के साथ अन्दर लाकर स्वामी के चरणों के पास रखवावें । प्रति वर्ष इसी दिन चर्मकारों को भी देव सन्दर्शन का अवसर मिलता रहे, यह आग्रह श्री आचार्यजी का है।"
बाहर से गगनभेदी नगाड़ों की आवाज सुनाई पड़ी।
"चेन्नकेशव भगवान् के पादत्राण आ गये, यह उसी की सूचना है।" बिट्टिदेव ने कहा।
पट्टमहादेवी कुँवर बिट्टियण्णा को साथ लेकर, आगमशास्त्रियों के प्रमुख नेताओं को आगे करके मन्दिर से बाहर आयौं। उन पादत्राणों को रखवाने के लिए मन्दिर के महाद्वार के सामने दो पीढ़े लगवाये गये थे। लाल वस्त्र में लपेटे हुए एक-एक पादत्राण को अपने सिर पर रखे दो चर्मकारों ने आकर उन्हें पोढ़ों पर रख दिया। आगमशास्त्रियों ने उस लपेटे हुए वस्त्र को खोलने का आदेश दिया।
पट्टमहादेवी उनके पास गयीं, देखा, और एक परिक्रमा को।
"बिट्टि, देखो न ! इन दोनों को अलग-अलग गाँवों के चर्मकारों ने बनाया है। ये एक-दूसरे से परिचित नहीं। मगर रूप, आकार, माप, प्रयुक्त चमड़ा सब एक जैसा है। इन्हें तैयार करने वाले दोनों जन भगवान् के आदेशानुसार एक-एक पादत्राण बना लाये हैं। है न यह एक अद्भुत लात?'' शान्तलदेवी ने कहा।
"अद्भुत तो है ! इससे भी अद्भुत यह है कि इस बात को बहुत पहले आचार्य जी ने आपसे कहा था।" बिट्टियण्णा ने कहा।
आगमशास्त्रियों ने उन पर पन्त्रपूत जल छिड़का और उन्हें लाने वाले उन चर्मकारों पर भी जल छिड़का और कहा, "आप दोनों जैसे इन्हें यहाँ ले आये, उसी तरह. सिर पर रखकर मन्दिर की एक परिक्रमा करके, अन्दर ले आयें और भगवान के सान्निध्य में इन्हें रख दें।"
पास में खड़े तिलकधारी ने आगमशास्त्री की बात सुनकर प्रश्न किया. "क्या चर्मकार मन्दिर के अन्दर आवेंगे?"
पट्टमहादेवा शान्तला : भाग चार :: 35