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वहाँ एकत्रित जनता अपने-अपने निवास को ओर चल पड़ी। महाराज और रानियाँ राजमहल की ओर चले गये । अधिकारी भी अपने-अपने घर की ओर चल दिये और जकणाचार्य, उनकी पत्नी लक्ष्मी तथा पुत्र डंकण स्थपति के निवास की ओर।
एक महान वैचित्र्य को प्रदर्शित करनेवाले भगवान् केशवदेव नाभि प्रदेश में घायल होकर भी वहाँ पण्डाल में मुस्कराते हुए अकेले खड़े रह गये थे। पण्डाल के घारों ओर चाँसों का ऐसा घेरा बना दिया गया था कि कोई भी जन वहाँ मूर्ति तक नहीं पहुँच सके, सब दूर से ही देख सकें। वहाँ पहरेदार रखे गये थे। उसमें उस मण्डूक को भी वहीं एक परात में पानी डालकर रखा गया था। ऊपर से जालीदार ढक्कन था। सभी दर्शनार्थियों को दिखाने के लिए एक पहरेदार को भी नियुक्त किया गया था।
तिरुवरंगदास भो अपने अड्डे की ओर चला गया।
जकणाचार्य सकुटुम्ब अपने मुकाम पर जब पहुँचे तो देखा कि वह बन्दनवार आदि से सजा हुआ है। लक्ष्मी, उसका भाई और इंकण का सारा सामान सरंजाम तब तक वहाँ पहुँचा दिया गया था। मल्लोज ने दोनों शिल्पियों और अपनी बहन लक्ष्मी का स्वागत किया। अन्दर से चट्टला और दासब्चे ने आकर आगत परिवार की आरती उतारी।
___चट्टला ने कहा, "अन्दर प्रवेश करने के पहले, 'पाँव से ड्योढ़ी पर रखे पात्र में जो धान है उसे अन्दर की ओर बिखेर दें।" लक्ष्मी ने यह सुनकर चकित दृष्टि से उसकी ओर देखा, और फिर अपने पतिदेव की ओर ।
"पट्टमहादेवीजी की आज्ञा है कि मांगलिक कार्य सम्पन्न करके घर में प्रवेश करना चाहिए।" चट्टला बोली।
धान से भरे पात्र को दायें पैर से अन्दर की ओर लुढ़काकर, लक्ष्मी ने अन्दर
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग घार ::7