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"कोई नहीं, मैं और गाड़ी चलानेवाला! दो ही ।"
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'ऐसा है तो मैं भी तलकाडु चलूँगा, तुम्हारे साथ ।"
'आपको क्यों जाना हैं ?"
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"तुमको समझने के लिए।"
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'सो तो ठीक। मुझपर यों दबाव डालने का आपको क्या अधिकार ?'
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'वह तो पीछे मालूम होगा। मैं अच्छी तरह जान गया हूँ कि तुम कौन हो। तो
बताओ, तुम साथ चलोगे या मैं ही तुम्हारे साथ चलूँ?"
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'आप ही मेरे साथ चलिए।"
"नहीं, पहले तुम मेरे साथ चलोगे।"
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'मेरे साथ चलना मान लेने के बाद, अपने साथ चलने को कहते हैं ?"
"मुझको अपना घोड़ा नहीं लाना हैं ?"
"मैं यहाँ हूँ, आप ले आइए।"
"स्वो तो नहीं होगा। मैं तुमपर विश्वास नहीं कर सकता।"
लाचार होकर मायण के साथ वह चला गया। लौटते वक्त उसी रंगमंच के पास से होकर जाना था। वहाँ फिर से खेल शुरू होने की तैयारियाँ हो रही थीं। हल्ला-गुल्ला थम गया था। लोग बैठे-बैठे आपस में बातें कर रहे थे।
मायण और वह दोनों अपने रास्ते चलकर अग्रहार में पहुँचे। मावण ने अपने घोड़े को लिया। उसी पर दोनों बैठ गये। उसने जिस जगह जाने की बात कही थी, वहाँ पहुँचे। जैसा उसने कहा था, वहाँ उसके लिए गाड़ी प्रतीक्षा कर रही थी। परन्तु उस पर परदा पड़ा था। अन्दर कौन-कौन हैं, इसका पता मायण न लगा सका । अभी गाड़ी से कुछ दूर ही थे कि मायण ने उससे पूछा, " अन्दर कोई नहीं है न?"
उसने सीटी बजायी। फिर बोला, "अब तुम मेरे कब्जे में हो। चुपचाप मुँह बन्द करके चलो।" और मायण के कमरबन्द पर हाथ रख दिया ।
मायण ने इसकी अपेक्षा नहीं की थी। उसका सन्तुलन कुछ गड़बड़ा गया। उसने घोड़े की लगाम खींची। घोड़ा सामने के पैर उठाकर एक बार हिनहिनाया । इतने में गाड़ी से सात-आठ लोग कूद पड़े । मायण ने स्थिति भाँप ली। उसने सोचा अब इनसे झगड़ा मोल लेना ठीक नहीं। तभी एकाएक उसके पीछे घोड़े पर जो बैठा था उसे अपनी कोहनी जोर से दे मारी। कमरबन्द की पकड़ ढीली पड़ गयी। घोड़ा पीछे की ओर मुड़कर सरपट दौड़ने लगा। उसे घोड़े से कूदकर भागने का साहस नहीं हुआ। बाजू में जोर का आघात हुआ था। उसे सहन करते हुए उसने लगाम खींच दी। घोड़ा एकदम रुक गया। मायण के लगाम हाथ में थामने के पहले ही वह घोड़े से कूद पड़ा। उसने मुड़कर देखा । दूर पर, गाड़ी से कूदे कुछ लोग दौड़े आ रहे हैं। एक तरह की निराशा से, जो घोड़े से गिरा था उसकी हालत की ओर ध्यान तक न देकर, मायण
302 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार