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________________ मुथ एकेके से ऐसा लगता था कि उनके दिल में भारी पीड़ा है। पट्टमहादेवी ने कहा. "एचिराजजी ऐसी गूढ़ता से यदि कहेंगे तो बात स्पष्ट नहीं होगी। साफ-साफ कहें तो अच्छा होगा !" C 'क्षमा करें। मेरे बेटे एचिराज की बात पर सन्निधान ध्यान न दें। वह प्रस्तुत सन्दर्भ में अनावश्यक है। एचि! चुप बैठो।" गंगराज ने कहा । वहाँ मौन छा गया। वहाँ जो भी उपस्थित थे, सब एचिराज और गंगराज की ओर देखने लगे। बिट्टिदेव ने शान्तलदेवी की ओर देखा । शान्तलदेवी ने कहा, "प्रधानजी का कहना ठीक है। प्रस्तुत विषय के साथ इस बात का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं। हम आत्म गौरव की रक्षा करने के लिए प्रस्तावित हमले के विषय में विचार कर रहे हैं। परन्तु एचिराज ने अत्यन्त दुखी मन से जो बात कही, उसके दो माने हैं। या तो वह धर्म से सम्बन्धित है या फिर राजमहल के धन के व्यय से उनकी बात को यों ही टाल देना ठीक नहीं। इसलिए उचित होगा यदि एचिराज अपनी बात स्पष्ट कर दें। यह प्रधानजी का अपना निजी विषय हैं, ऐसा नहीं लगता। यह अधिक व्यापक हैं। धर्म के सम्बन्ध में इस तरह की टीका-टिप्पणी का सार्वजनिकों की ओर से होना हमारे राज्य के हित में ठीक नहीं। इसलिए प्रधानजी स्पष्ट करने के लिए उन्हें अनुमति दें। " एचिराज ने पिता की ओर देखा । गंगराज ने कहा, "इस विषय पर बाद में सोचा जा सकता है। अभी तो सन्निधान की सलाह के बारे में राय प्रकट करें ।" " ठीक वैसा ही करें।" बिट्टिदेव ने कहा । मरियाने बोले, "इस अवसर पर मंचियरस और सिंगिमय्या जी होते तो बहुत अच्छा होता ! वे दोनों चालुक्यों की गतिविधियों से अपेक्षाकृत अधिक परिचित हैं। हो सके तो रानी बम्मलदेवीजी इस सम्बन्ध में कुछ कह सकेंगी, मुझे लगता है। हमारी बुद्धि केवल आज्ञा का पालन करना ही जानती है, राजनीतिक विषयों पर बहस कर सकें, इतनी योग्यता हमने अभी नहीं पायी। अब मेरे पिताजी की और बात थी। पिताजी के बड़े भाई भी उतने ही अनुभवी हैं पर वे भी इस वक्त यहाँ उपस्थित नहीं हैं। हमारे सन्निधान के पिताजी ने चालुक्यों का उपकार जो किया उसके बदले उन्हीं से इस राज्य का जो अपकार हुआ हैं, उसकी याद आती है तो मेरा सारा अंग जल उठता है। इसलिए क्षणभर भी सोचे बिना तुरन्त हमला कर देना उचित है।" "चालुक्य और पोसलों की मैत्री एक प्राण और दो शरीर जैसी रही, यह सच हैं। उसका टूटना भी सच है। फिर भी हम यह बात सब जानते हैं कि वह पुरानी मैत्री पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार: 263
SR No.090352
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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