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रानियाँ बम्मलदेवी, राजलदेवी, लक्ष्मीदेवी तथा पट्टमहादेवी के माता-पिता रानी पद्मलदेवी, चामलदेवी, बोप्पिदेवी, इन सबके लिए सामने थोड़ी दूर पर बैठने की व्यवस्था की गयी थी। गर्भगृह के अन्दर वैदिक सोच्चारण मन्त्रपाठ कर रहे थे।
सभी पूजा-विधियाँ समाप्त हुई और आरती उतारने का समय आया। स्वयं आचार्यजी आरती उतारने के लिए उठ खड़े हुए। उनके उठते ही अन्य सभी लोग भी उठ खड़े हुए । एम्बार ने आरती के लिए बाती और कपूर जलाकर उसे आचार्यजी के हाथ में दिया। घण्टे. नगाड़े, मंगलवान आदि बज उठे 1 इस माद से सारा प्रदेश गूंज गया। नाद के स्पन्दन से उपस्थित सभी भक्त पुलकित हो उठे। यह एक स्वर्गीय दृश्य था।
श्री आचार्यजी के ही करकमलों से प्रतिष्ठित चेलुवनारायण का हँसता चेहरा आरती के प्रकाश में प्रभावलय से युक्त हो चमक उठा। इन सबके बीच कहीं से आवाज आयो-'बीबी!" आचार्यजी ने वह आवाज सुनी।
शहज़ादी ने गर्भगृह की ओर हाथ बढ़ाया। उसकी आँखों की ज्योति अपने 'समप्रिय' में तल्लीन हो गयी थी। उसने एक बार कहा, "ओफ! मेरा रामप्रिय कितना सुन्दर!'' उसने हाथ जोड़ लिये।
सभी ने एक बार शहजादी की ओर देखा, फिर चेलुषनारायण की ओर दृष्टि डाली। उस नाद से तरंगित वातावरण में आरती की ज्योति एकबारगी विशेष प्रकाशमय हो गयी। यह प्रकाश आँखों को चकाचौंध कर गया था। सबकी आँखें एक बार एक क्षण के लिए मुंद गयी थीं। प्रकाश फिर सामान्य स्थिति पर आ गया था।
एम्बार ने वैदिक मण्डली को आरती दिखाकर, राजदम्पती को देकर, शहजादी की ओर देखा। उसके मुँह से एक बार निकला, "हाय !"
"क्या हुअा एम्बार?" आचार्यजी ने पूछा। "शहजादी ! यहीं खड़ी थीं, नहीं रहीं।" एम्बार ने कहा।
"उनकी आत्मा रामप्रिय में एकाकार हो गयी । उनका पार्थिव शरीर जहाँ पड़ा है वहीं उनकी समाधि बनेगी। तुम चिन्ता मत करो। काम यथावत् चलता रहे।" आचार्यजी ने कहा। आरती, चरणामृत और प्रसाद-वितरण आदि सब यथाविधि समाप्त हो गये। इसके बाद आचार्यजी ने कहा, "महाराज और पट्टमहादेवी जी, आप लोग आइए," कहते हुए गर्भगृह से बाहर आये। राजदम्पती ने उनका अनुसरण किया। लोगों की भीड़ उनके साथ घुस न जाए, इसलिए नागिदेवारणा ने रक्षक-दल द्वारा भीड़ को रोकने की व्यवस्था की। भीड़ पर नियन्त्रण हो गया। आचार्य द्वारा बुलाये गये लोगों को हो वहाँ जाने दिया गया। बाकी सबको वहीं रोक दिया गया।
शहजादी का पार्थिव शरीर वहीं पास में एक औदुम्बर (गूलर) वृक्ष के नीचे ऊर्ध्वमुख और छाती पर दोनों हाथ जोड़े पड़ा था। आचार्यजी को इच्छा के अनुसार
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 233