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________________ पट्टमहादेवी शान्तलदेवी ने कहा, "परम पूज्य गुरुवर्य के चरणारविन्दों में मेरी एक विनती हैं। मेरी ज्येष्ठा और मातृसमान रानी पद्यलदेवीजी का मुझ पर अपार प्रेम है। निजी अनुभवों के फलस्वरूप उन्हें अपने मन में एक तरह की शंका उत्पन्न हो गयी हैं। उन्हें भीतर-ही-भीतर यह डर बैठ गया है कि मुझे भी उन्हीं की तरह न भुगतना पड़े, उन्होंने मुझे सतर्क भी किया। उनके मन में उस तरह की शंका और भय के उत्पन्न होने का कारण भी है। धर्म की बात को लेकर लोगों की गलत रास्ते पर ले जाने की जो कुछ कोशिशें हुई सो गुरु जी की स्मृति में होंगी ही। ये सब निम्नस्तरीय व्यवहार मानव से प्रमादवश हो जाते हैं। अनेक अवसरों पर मनुष्य अज्ञान के कारण गलत मार्ग पर चलने लगता है। ऐसे लोगों को सही रास्ते पर लाना ज्ञानियों का काम है। इस मन्दिर के निर्माण का संकल्प जब किया था तब से अब तक शान्तिनाथ स्वामी से मेरी यही प्रार्थना रही है कि सबको सुबुद्धि दें और शान्ति प्रदान करें। हमारा जैनधर्म कहता है कि शान्ति से विश्व को जीत सकते हैं। इस धर्म का मूल सिद्धान्त ही अहिंसा है। उसमें कहीं भी प्रतिकार की भावना नहीं हैं। प्रेम से सौहार्द बढ़ाना ही हमारा मार्ग है। पोय्सल पट्टमहादेवी के लिए यह 'सवतिगन्धवारण उपाधि परम्परा से आयी है। परम्परागत होने के कारण मेरे नाम के पीछे भी यह लगी हुई है। शान्तिनाथ भगवान् की इस प्रतिष्ठा में मेरी कोई लौकिक दृष्टि ही नहीं रही। एकमात्र पारमार्थिक दृष्टि हो रही है; क्योंकि इस 'सवतिगन्धवारण' शब्द में ही अहंकार की ध्वनि है। अहंकाररहित सर्वसमतात्मक शान्ति ही मेरा लक्ष्य है। इस वजह से, मन-वचन-काय से परम पावन, आपके ही द्वारा यहाँ शान्तिनाथ स्वामी की प्रतिष्ठा हो, यही चाहती थी। इसलिए मेरी इतनी ही प्रार्थना है। आपके पद-गौरव पर आक्षेप हो, ऐसा कोई कार्य यह राजमहल आपसे करवाना नहीं चाहता है। बाहुबली स्वामी त्याग की साकार भव्यमूर्ति हैं। उन्हीं की तरह, आपने सम्पूर्ण दान शान्तिनाथ स्वामी को समर्पित करने का संकल्प किया है। पाद पखारकर यह आपके चरणों में समर्पित किया गया है। उसका विनियोग जैसा चाहें करने के लिए आप स्वतन्त्र हैं। राजमहल आपकी स्वतन्त्रता पर नियन्त्रण नहीं लगाता। इस अवसर पर आपके प्रधान शिष्य एवं हम सबके गुरुवर्य महेन्द्रकीर्तिजी ने तीन सौ तेरह काँसे की पताकाओं का दान किया है। ये सांकेतिक शान्तिपताकाएँ सर्वदा फहराती रहें, यही उनका उद्देश्य है, ऐसा मैं मानती हूँ। मेरे इस संकल्प पर उनके आशीर्वाद की ये प्रतीक है। यह राजमहल उनकी इस उदारता के लिए अत्यन्त कृतज्ञ है।" यह कह शान्तलदेवी ने उन गुरु शिष्यों को प्रणाम किया। "पट्टमहादेवी के मनोभाव से हम पहले से ही परिचित हैं। इसीलिए उनके कहते ही किसी तरह की चर्चा के बिना हमने स्वीकार कर लिया। छोटी रानीजी अपने पुत्र के साथ यहाँ उपस्थित होतीं तो सारा राजपरिवार इस समारम्भ में सम्मिलित हुआसा होता । वे कुशल तो हैं ?" प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेवजी ने पूछा। पट्टमहादेवी शान्तला भाग चार: 231
SR No.090352
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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