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________________ "देखिए, आप वृद्ध हो गये हैं। फिर यह भी कहा करते हैं कि आप आचार्यजी के श्रेष्ठ शिष्य हैं। आपको मेरी और मेरी बहनों की बात से क्या सरोकार है ? मुझसे पाणिग्नहण करनेवाले महाराज की मृत्यु का कारण पट्टमहादेवी शान्तलदेवी नहीं, मेरे अविवेक के कारण वह मृत्यु का ग्रास बने। करनेवाले का पाप कहनेवाले पर लगता है, यह कहावत सुनी है ? वह पाप आपको भी लगेगा। अपने स्थान-मान के अनुरूप आचरण कर आदर का पात्र बनने की कोशिश न कर, रानी के मन में विद्वेष के विषबीज बोकर, भला आप क्या साध लेना चाहते हैं ? आपकी सारी बदसलाह मुझे मालूम हो गयी है। अपनी लड़की की भलाई चाहते हैं, तो यह सब छोड़कर चुपचाप बने रहें। अगर हम यह कहें कि आचार्यजी व्यभिचार करते हैं तो आपको कैसा लगेगा?" "हाय, भगवन्! आचार्यजी परम सात्त्विक हैं। उनके बारे में इस तरह सोचना भी पाप है। आपकी जीभ में कोडे पड़ेंगे। सावधान!" "तो आपकी जीभ में क्या पड़ेंगे। हमारी पट्टमहादेवीजी सात्त्विक शिरोमणियों में सर्वश्रेष्ठ हैं। उनके बारे में अण्ट-सण्ट बकेंगे तो बोलनेवाली की जीभ कटवा दी जाएगी। सावधान!" "यह कहनेवाली आप कौन होती हैं? राजमहल का खाना खाकर मस्ती आ गयी!" तुरन्त लक्ष्मीदेवी के मुंह से निकला। 'मस्ती तुम्हें आयी है, हमें नहीं, यह राजमहल तुमसे पहले हमारा है। यह हमारे अधिकार का अन्न है जो हमारे लिए अमृत है। जैसा तुम कहती हो वैसा नहीं होगा। तुमको मालूम नहीं कि हम किसी की मेहरबानी का अन्न नहीं खा रही हैं। हम अपने मायके का अन्न खा रही हैं। कुते को हौदे पर बिठाएँ तो भी वह जूठी पत्तल देखते ही उछल पड़ेगा। ऐसे स्वभाव के लोगों को ऊपर बिठाएँ तो ऐसा ही होता है। चलो चट्टला! इनसे क्या प्रयोजन? सभी बातों को साक्षी हो तुम।" कहकर पद्मलदेवी वहाँ से मुड़ गयीं। "है न गिरगिट का गवाह बाह? आपके लिए यह बदलचन औरत ही साक्षी मिली ! बहुत ठीक ! मेरे पिता ने मुझसे कुछ नहीं कहा। आप कुछ कहानी गढ़कर मेरे और पट्टमहादेवी के बीच वैर पैदा करना चाहती हैं ? जो भी हो, आप लोगों की जिन्दगी तो बरबाद हो ही गयी है। शायद आपकी यही इच्छा है कि हमारा भी वही हाल हो। मगर यह सब चलेगा नहीं। मैं भी देख लूंगी क्या होता है।" लक्ष्मीदेवी बड़बड़ायो । पद्यलदेवी गुस्से से तमतमा उठी। तत्काल वहाँ से लौट पड़ी। तिरुवांगदास को लगा कि उसमें एक नयी चेतना आ गयी। "बेटी, कीचड़ पर पत्थर फेंकने से मुंह पर छीटे पड़ेंगे। हमारा यहाँ रहना किसी को भी नहीं भाता। कल ही यहाँ से चल देंगे। आचार्यजी से निवेदन करेंगे। फिर वे जहाँ रहने को कहेंगे, वहाँ रहेंगे। सजमहल के ही भरोसे पर तुम्हारा पालन-पोषण नहीं 198 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार
SR No.090352
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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