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________________ . . . . . पर्यवसान कहाँ होगा?" ___ "मैं क्या करूँ, मेरा मन ही तिलमिला उठता है। मानवीय मूल्यों को तिलांजलि देकर पशुवृत्ति को अपना कर, मनुष्य स्वार्थ साधना के लिए सब-कुछ करने को तैयार हो बैठता है न! उसके मन में यह भावना ही नहीं होती कि खुद की तरह दूसरे भी जीएँ । जैसे दूसरे कुतों को मकर सलमान कुतः सामान लेकसा ही मानव मानव कब बनेगा? उसका अज्ञान कब दूर होगा? मैं चाहती हूँ कि हमारे राज्य में कोई अज्ञानी न रहे । यहाँ तो राजमहल ही में अज्ञान भरा पड़ा है। ऐसी स्थिति में मझे कितनी परेशानी होती होगी।" "क्षमा करें। राजमहल का अज्ञान एक स्वयंकृत अपराध है। दूसरे विवाहों के लिए सम्मति क्यों देनी चाहिए थी? यदि एक 'नहीं' मुंह से निकल जाती तो महाराज आगे नहीं बढ़ते । यह किसका कसूर है?' "विचार करने की दृष्टि ही अलग थी। मुझे अपने खुद के सुख से भी प्रधान था राष्ट्रहित। फिर राज्य-रक्षा के लिए हमें मदद की भी आवश्यकता थी। वे भी तो अच्छी हैं । परन्तु..." "महाराज जब मत--परिवर्तन के झंझट में पड़े, तब उन्हें उससे दूर नहीं रखा जा सकता था?" "मैं माँ हूँ । कौन ऐसी माँ होगी जो अपनी बेटी के प्राणों को दाँव पर लगा देगी? इसलिए एक सीमित परिवर्तन के लिए स्वीकृति देनी पड़ी।" "मैंने यह नहीं कहा । उस त्रिनामधारिणी लड़की से शादी के लिए क्यों स्वीकृति दी?" "हाँ, मैंने यहाँ थोड़ी-सी गलती कर दी। अपने स्वार्थ के लिए मैंने मान लिया। महासन्निधान पर मुझे अपार भक्ति है। मेरे तन-मन में, सर्वांग में वे ही रमे हैं। फिर भी मैंने जो व्रत लिया वह स्वार्थपूर्ण रहा, यह अब लग रहा है। मैं सन्निधान के अत्यन्त निकट रहकर भी दूर रही। उनका मन अन्यत्र मोड़ दिया। तब लगा कि यह ठीक है। अब लगता है कि वह गलत था। इसलिए अब मुझे मानना पड़ेगा कि यहाँ मैं हार गयी।" __ "पोय्सल महादेवी को कभी अपनी हार मानने की आवश्यकता नहीं। 'सवतिगन्धवारणा' विरुद पट्टमहादेवी का है। उसे चरितार्थ करना होगा।" "स्पर्धा समान योग्यता रखनेवालों में हो तो बात ही दूसरी है। अज्ञानियों से जुझना तो हवा में तलवार चलाने जैसा हैं। हाथ ही दुखेगा, हवा तो कटेगी नहीं।" "कुछ भी हो, आप मुझसे अधिक बुद्धिमती हैं। इसे स्वीकार करते हुए मुझे कोई संकोच नहीं होता। परन्तु आज प्रमाद के कारण कही गयी बात कल आप के लिए काँटा न बने, इसका खयाल रखना चाहिए न?" 190 :; पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार
SR No.090352
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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