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अभिलाषा के अनुसार हमने वहाँ श्रीमन्नारायण का एक विशाल मन्दिर बनवाया है। आप आकर वहाँ श्रीनारायण के दर्शन कर सकती हैं। यदि आप मानें तो आपको मेरे साथ भेजने के लिए आचार्यजी से निवेदन करूँ?"
"आपके आमन्त्रण के लिए मैं कृतज्ञ हूं। मुझे और कोइ पाह नहीं ! यहां जो आनन्द मुझे मिलता है वह अन्यत्र कहीं भी नहीं मिल सकेगा। इसलिए मुझे क्षमा करें।"
"मैं आपके आनन्द में बाधा नहीं डालना चाहती। हमारी परम्परा ने हमें वह शक्ति दी है कि हम जहाँ भी हो वहीं अपने आराध्य की उपासना कर सकें। इस प्रकार हम जहाँ भी रहें उस आनन्द को पा सकते हैं। इसलिए यह आशा है कि आप हमारे साथ चल सकेंगी।"
'क्षमा कीजिए। हम मूलतः मूर्तिपूजक नहीं 1 इसके विपरीत जब मूर्ति विशेष में मेरी श्रद्धा-भक्ति उत्पन्न हो गयी है तो अब एकमात्र उसी के सान्निध्य में मुझे आनन्द मिल सकता है। जहाँ हूँ वहीं अगर आनन्द प्राप्त हो सकता हो तो मैं अन्यत्र क्यों जाऊँ? इस सन्दर्भ में हम दोनों में बहुत अन्तर है । मेरी तरह आप अन्य सम्प्रदाय में जन्मी होती और बाद में इस और प्रेम पैदा हुआ होता तो मेरी हालत को आसानी से समझ जातौं। अब तो मेरा सम्पूर्ण जीवन यहीं बीतेगा।'
"आपकी मर्जी । महासन्निधान ने कहा है, आप बादशाह की बेटी हैं. इसलिए आपको जो सम्मान मिलना चाहिए, और जो संरक्षण मिलना चाहिए, इस सबका उत्तरदायित्व राजमहल का है। इसलिए आइन्दा राजमहल जहाँ आपके निवास की व्यवस्था करेगा, वहाँ रहना होगा। आपकी जरूरतों का ध्यान रखने, आपकी सेवा एवं सुरक्षा के लिए हम नौकरों को नियुक्त करेंगे।''
__ "रामप्रिय के आश्रय में बेरोकटोक चली आनेवाली मुझे उसी की सहायता सदा मिलती रहेगी। और मुझे कुछ नहीं चाहिए । यहाँ किसी भी तरह असुविधा नहीं। आपने
और महाराज ने मेरे प्रति जो अनुकम्पा दिखायी. इसके लिए मैं आभारी हूँ। मेहरबानी करके मुझ पर उदारता का और बोझ न लादें। लोग राजानुग्रह प्राप्त करने के लिए लालायित रहते हैं। वह अनुग्रह मुझे स्वयं ही प्राप्त है। मैंने उसे अस्वीकार किया, इस पर महाराज क्रोधित न हों, इतना भर आप देख लें।
"तात्पर्य यह कि आप रामप्रिय में ही साक्षात्कार की अभिलाषा करनेवाली संन्यासिनी हैं। अब मैं कुछ और नहीं कहना चाहती। आप हमारे राज्य में आकर बसी, यही इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि हमारा यह राज्य धर्म-सहिष्णुता का एक शाश्वत रूप है । हमें इसी का सन्तोष है। आपको यहाँ तक आने का कष्ट हुआ, इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ । राज-पुत्री होकर आपने सब कुछ त्याग दिया! और इधर मैं...हेग्गड़े की पुत्री बनकर राजकाज के इस झंझट में पड़ी हूँ! यह कैसी विपरीत स्थिति है ? अच्छा,
पट्टमहादेवी शान्ताला : भाग चार :: 179