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"तो आपकी राय में यह एकान्त आवश्यक नहीं, यही कहना चाहते हैं?"
"मैं केवल अनुयायी मात्र हूँ? जिज्ञासु नहीं, इसलिए इस सम्बन्ध में मैंने सोचाविचारा ही नहीं।"
"जाने दीजिए। मैं भी इस बारे में जिज्ञासा क्यों करूँ?" कहकर शान्तलदेवी परदे के बाहर ही खड़ी रहीं। एम्बार भी खड़ा रहा। थोड़ी देर बाट पुजारी बाहर आया। उसने एम्बार से पूछा, "आचार्यजी अभी आये नहीं?"
"आने का समय उनके ध्यान में रहता है। आते ही होंगे। अलंकार आदि पूरा हो चुका हो तो परदा हटा सकते हैं? दर्शनाभिलाषा से पट्टमहादेवीजी पधारी हैं।" एम्बार ने कहा।
__ परदा हटा दिया गया। चेलुषनारायण सर्वालंकार-भूषित होकर एक ऊँची वेदी पर विराज रहे थे। गर्भगृह के द्वार पर आँखें मूंदकर हाथ जोड़े, ध्यानस्थ स्थिति में, एक निराभरण सुन्दरी पालथी मारे बैठी थी। शान्तलदेवी ने सोचा, "शायद यही बादशाह की पुत्री है।"
पट्टमहादेवी के आगमन की खबर पाकर उनको देखने के लिए वहाँ बहुत से लोग एकत्र हो गये। इस भीड़ की वजह से बादशाह की बेटी की एकाग्रता भंग हो गयी। वह कुछ घबराकर चारों ओर चकित दृष्टि से देखने लगी।
वह आचार्य को देखा करतो थी। परन्तु आज आचार्य नहीं, उसने अनपेक्षित भीड़ को देखा। उसे मालूम था कि राजदम्पती आये हैं, फिर भी इस बात को लेकर उसे कोई कुतूहल नहीं था। पट्टमहादेवीजी एम्बार के साथ आयी थी. तो भी उनके साथ सात-आठ रक्षक-दल के जवान थे। तोमरधारी राजभटों को देखकर उसने समझ लिया कि रानोजी का आगमन हुआ है।
शान्तलदेवी बिलकुल उनके सामने थीं। उन्होंने मुसकराकर हाथ जोड़े। शहजादी उठ खड़ी हुई । हँसती हुई, हाथ जोड़ नमस्कार किया।
___ इतने में महाराज, आचार्यजी, रानी लक्ष्मीदेवी आदि भी वहाँ आ पहुंचे। आगे की पूजा-अर्चना यथाविधि सम्पन्न हुई। चरणामृत, प्रसाद आदि के वितरण के बाद आचार्यजी ने शहजादी का महाराज, पट्टमहादेवी, रानी लक्ष्मीदेवी, सबसे परिचय कराया।
बिट्टिदेव ने पूछा, "आपके लिए यहाँ सभी सुविधाएँ तो हैं ?"
"रामप्रिय के साथ रहने से भी अधिक किसी विशेष इन्तजाम की मुझे जरूरत नहीं है। फिर भी सारा इन्तजाम है मैं राजमहल के ऐशो-आराम को छोड़कर भगवान् का साक्षात्कार पाने के लिए आयी हूँ। ऐसी हालत में मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए।" शहजादी ने कहा।
"पट्टमहादेवीजी आपसे बातचीत करना चाहती हैं, भोजन के बाद सुविधा रहेगी न?" आचार्यजी ने प्रश्न किया।
176 :: पट्टमहादेची शान्तला : भाग चार