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सनिधान को मालूम ही हैं।" चट्टलदेवी ने स्पष्ट किया।
"कम से कम अब तो मान लोगे?" उसने सिर हिलाया। "तुम इधर क्यों आये?"
"यहाँ लोगों में असन्तोष फैलाने, मत सम्बन्धी बातों को लेकर लोगों को उकसाने।"
"तुम्हें क्या फायदा?"
"इसी में मेरे मालिक का लाभ है। आपकी कमजोरी उनकी विजय में सहायक होगी।"
"तो लगता है, तुम समझने लगे हो कि तुम सफल हो गये!" "प्रतीक्षा करके देखिए, आगे क्या होनेवाला है।"
"क्या होगा सो हमें मालूम है। उस चालुक्य चक्रवर्ती की मानसिक दुर्बलता का फायदा उठाकर तुम्हारा मालिक तथा ऐसे ही और ग्यारह मालिक एक साथ मिलकर हमारे राज्य पर हमला करने की तैयारी कर रहे हैं। ऐसा मत समझो कि यह हमें मालूम नहीं। अभी तुमको दण्ड नहीं देंगे। विजयोत्सव पर यहाँ का अपार जनसमूह देखना। उसके बाद तुम्हें देश-निकाले का दण्ड दिया जाएगा, ताकि जाकर अपने बड़े और छोटे मालिकों से, और सबसे बड़े मालिक उस शकपुरुष से भी कहो कि तुमने क्या देखा। उसके बाद भी हमला करने की सोचते हों तो उनका दुर्भाग्य । हम क्या कर सकते हैं! एक समय था कि जब उन्होंने मेरे पूज्य पिताजी को अपना भाई माना था। उसी भावना के कारण तुमको वापस भेजेंगे। चाविमय्या, अभी इसे बन्धन में रखो।'
वहाँ से उसे ले जाया गया।
"मत सम्बन्धी बातों को लेकर लोगों के दिल-दिमाग को बिगाड़नेवालों के लिए यहाँ स्थान नहीं है। सब लोग इसे जान लें। इस चोक्कणा का किस्सा यहीं तक समाप्त नहीं है, और भी बहुत है। परन्तु उस सबके लिए अभी समय नहीं है। अभी हमारे समक्ष इस मन्दिर और प्रतिष्ठा-समारम्भ का प्रश्न है। इस सम्बन्ध में निर्णय करेंगे। श्रीवैष्णव हमारे लिए प्रिय होने पर भी उनकी रीति प्रचलित परम्परा से भिन्न है, ऐसा हम नहीं मानते। पट्टमहादेवीजी के पिताजी ने गाँव में धर्मेश्वर महादेव की स्थापना करवायी थी। जैन होने पर भी उनकी पत्नी ने, किसी तरह धर्म से हटे बिना, उस प्रतिष्ठा-महोत्सव को सांगोपांग सम्पन्न कराया था। हमारे राजमहल की भी एक परम्परा है। क्यों न उसी के अनुसार कार्यक्रम का निर्वाह हो!"
__ "वैसा भी किया जा सकता है। आचार्यजी के लिए यह मान्य है।" आगमशास्त्रियों के नेता ने कहा 1
उदयादित्यरस ने कहा, "महाराज कोई भी धार्मिक कार्य करें, या दान-धर्म करें
पट्टमहादेवी शान्तनः : भाग चार :: 21