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"उसी समय सौतों की झंझट से मुक्त मुझे एक परम्परागत विरुद 'सवतिगन्धवारणा' प्राप्त हुआ था। उस दिन उन लोगों के समक्ष जैसा कहा था, शान्ति लाभ के लिए रेविमय्या की अभिलाषा की सिद्धि के प्रतीक इस स्थान पर एक वसति (मन्दिर) निर्माण कराने की मेरी इच्छा है। इसके लिए सन्निधान अपनी स्वीकृति प्रदान करेंगे।"
"जरूर करा सकती हैं। परन्तु इसमें किस भगवान की मूर्ति प्रतिष्ठित होगी?" "विश्वशान्ति प्रदान करनेवाले भगवान् शान्तिनाथ की।"
"बहुत अच्छा काम है। आपके गुरु बोकिमय्याजी और गंगाचार्यजी यही हैं। उन्हें सारी बात समझाकर मन्दिर की रूपरेखा बनाने के लिए कह दें!"
"अभी नहीं। केवल कल्पना के आधार पर निर्णय करना नीट ही होगा।" "तुम्हारी मजी।
चर्चा यहीं रुक गयी। रेविमय्या अभी भी भाव-समाधि में स्थित था।"इसके ध्यान-मुक्त होने से पहले हम चन्द्रगुप्त बसदि और चामुण्डराय बसदि हो आएँ।" शान्तलदेवी ने कहा।
थोडी दर पर खड़े अंगरक्षक को संकेत से पास बुलाकर उससे राज-दम्पत्ती ने कहा, "हम उन बसदियों को देखने जाएंगे। रेविमय्या यदि पूछे तो बता देना कि हम उस ओर गये हैं। उसे वहाँ ले आना।"
वे जिस बसदि के पास गये तो वहाँ उसके साथ सटी एक और बसदि थी। बिट्टिदेव ने पूछा, "यह कौन-सी बसदि है. याद नहीं, कभी देखा हो।"
"यह कत्तले (अंधेरी) बसदि हैं। हमारे प्रधानजी के आदेश के अनुसार, उनकी मातुश्री पोचम्चे के लिए बनवायो गयी थी। यह आदि तीर्थंकर ऋषभदेव का मन्दिर
"ओफ! अब याद आया। उन्होंने हमसे पूछा था और हमने सम्मति दी थी, यह स्मरण न रहा। इसका ऐसा नाम क्यों?"
"इसकी रचना ही ऐसी है। अन्दर रोशनी का प्रवेश नहीं। इसलिए इस आदिनाथ बसदि का नाम कत्तले (अंधेरी) बसदि पड़ गया है।"
"ठीका"
वहाँ से चामुण्डराय बसदि में जाकर नेमिनाथ स्वामी के दर्शन कर बाहर आये। यहीं रेविमाया भी आकर इनके साथ मिल गया।
"क्यों रेनिमय्या, आज वाहुबली ने तुम्हें किस रूप में दर्शन दिये?"
"आज दिखाई ही नहीं पड़े। देखते-देखते वैसे ही गलकर ब्रह्माण्ड में विलीन हुए-से दिखें।"
बिट्टिदेव ने कहा, "जो भी हो, तुम्हारा और बाहुबली का बहुत ही अजीब रिश्ता है।"
172 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार