SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ की विदाई के अवसर पर भी नहीं हुआ था। परन्तु जकणाचार्य यह सब देख गद्गद हो गये। बोले, "मुझ जैसे एक साधारण से भी साधारण व्यक्ति के लिए इतना बड़ा सम्मान! मैं नतशिर हूँ। मैं इतने गौरव का पात्र नहीं था।" "यह व्यक्ति का गौरव नहीं । व्यक्ति आज है, कल नहीं। परन्तु आपकी यह सृष्टि, यह कलाकृति सदियों तक कन्नड़ राज्य की इस वास्तु-शिल्प-कला के लिए एक कीर्तिमान की तरह चिरस्थायी रहेगी। अतः राजमहल द्वारा यह उस कला का सम्मान है, उसके प्रति गौरव प्रदर्शन है।" बिट्टिदेव ने कहा। "सन्निधान की इस उदारता के लिए हम कृतज्ञ हैं। कितनी महान् कला क्यों न हो, उसे अभिव्यक्त होना हो तो प्रोत्साहन देनेवालों की बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है। मुझे यहाँ जो प्रोत्साहन मिला वह दो तरफ से मेरे सौभाग्य का कारण बना। एक उस अपूर्ण कामष्टि के लिए मारला. और सर य: मिजिसे मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था ऐसा एक अपूर्व पुनर्मिलन हमारा हुआ। हम आजीवन ऋणी हैं।" जकणाचार्य ने कहा। ___ "ऋण भी तो परस्पर होता है । अच्छा, भगवान् आप लोगों को अनन्त सुख दें, और सम्पन्न बनाए।" कहकर बिट्टिदेव ने जकणाचार्य तथा उनकी पत्नी एवं पुत्र डंकण को बेशकीमती वस्त्रों से पुरस्कृत कर विदा किया। इधर राजमहल के सामने रथ पर स्थपतिजी का परिवार बैठ चुका था, उधर महाराज एवं रानियों ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से उन्हें विदा किया। सैकड़ों पुर-प्रमुख इस आत्मीयतापूर्ण विदाई को चित्रलिखित प्रतिमा की तरह खड़े-खड़े देखते रहे। "रथ चलने हो वाला था कि जकणाचार्य रथ से उतरे और राजदम्पती के पास आये। उनके चरण छुए। आँसुओं से उनके चरण धोये, और गद्गद होकर कहा, "इन पवित्र चरणों से एक बार क्रीड़ापुर पुनीत हो ।' महाराज बिट्टिदेव ने उनके कन्धों पर हाथ रखा और उन्हें उठाया, अपनी स्वीकृति जतायो। अंगवस्त्र से आँसू पोछते हुए स्थपति पुनः रथ पर जा चढ़े । रथ आगे बढ़ गया। रथ के उस तरफ मंचण खड़ा था। जाते हुए रथ की ओर देखते वह मूर्तिवत् खड़ा ही रह गया। राजपरिवार महल की ओर अभिमुख हुआ। एकत्रित लोग अपनेअपने घर के लिए चल दिये। मंत्रण ज्यों-का-त्यों खड़ा था, उसकी ओर किसी का भी ध्यान न रहा। बहुत देर बाद वह उस भाव-समाधि से जगा, चारों ओर नजर दौड़ायी। कोई नहीं था वहाँ। राजमहल के अहाते का वह खुला मैदान स्तब्ध था। वह धीरे धीरे कदम बढ़ाता हुआ अपने निवास की ओर बढ़ गया। उसका मन कह रहा था, 'पवित्रात्मा एक कला. तपस्त्री हैं वे । ऐसों को सेवा करना कलादेवी की ही आराधना करना है।' युगल शिव-मन्दिरों का कार्य चल रहा था। पोय्सलेश्वर मन्दिर की नीव. पट्टमहादेवी शान्तला ; भाग चार :: 169
SR No.090352
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy