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________________ मौका मिला। जितनी जल्दी हो सके, अपने जन्मदेश की ओर चल देना ही अच्छा है। भगवन्, यदुगिरि में चेलुवनारायण की प्रतिष्ठा करवा दो, हम लौट जाएंगे। इतनी आत्मीयता से व्यवहार करने वालं हारज और महादेव के बार में ऐसी बातें हमें सुननी पड़ीं! धर्म के लिए राजाश्रय पाना अच्छा नहीं। उसे अपने आप में विकसित होना चाहिए। इस वर्तमान स्थिति में हम इस शिवालय की नींव-स्थापना के लिए स्वीकृति दें तो हमारे शिष्य ही हमें बहिष्कृत कर देंगे। भगवन्, कैसी स्थिति पैदा कर दी? हमारी सहायता करी भगवम्, इस नींव-स्थापना के काम से हमें मुक्ति दिलाओ। हमसे ग्रह नहीं हो सकता कि हम इन राजदम्पती का मन दुखाएँ।' प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव के मन में विचार हुआ कि सार्वजनिकों के समक्ष एक बार धर्म-मीमांसा क्यों न हो जाए। लोगों के मन में श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ की भावना जब पैदा कर दी गयी है, भोले-भाले जनमानस को प्रभावित कर उसे कुमार्ग पर जाने से पहले ही, क्यों न सबके समक्ष खुलकर एक बार धर्म की मीमांसा हो जाए । फलस्वरूप उन्होंने एक दिन पट्टयहादेवीजी को यह भी सुझाव दिया। गण्डविमुक्तदेवजी ने विचार किया, '' श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ का निर्णय करनेवाले हम कौन होते हैं? धर्म की श्रेष्ठता अश्रेष्ठता उसके अस्तित्व से ही मालूम पड़ जाती है। कोई परिपूर्ण नहीं। एक की एक छोटी-सी कमी को ठीक करके, दूसरा नाम दे देने से वह श्रेष्ठ नहीं हो जाता। जो श्रेष्ठ होगा उसे परिपूर्ण होना चाहिए। जैन धर्म उस दृष्टि से बेहतर है। वाद-विवाद से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा। इसलिए जैसा जो है, उसे वैसा ही रहने देना ठीक है। दूसरे धर्माभिमानी लोगों ने विचार किया कि इस बारे में सार्वजनिक विचारविमर्श हो जाना ही अच्छा है। परन्तु प्रत्येक ने द्वेष-भाव पैदा करने के विरोध में ही अपने विचार व्यक्त किये। वामशक्ति की धर्म-शठता की रीति और श्रीरशेट्टी के राजनीतिक आन्दोलन की तान्त्रिक प्रक्रिया का अनुमोदन किसी ने नहीं किया। सभी ने आचार्यजी के प्रति, महाराज और पट्टमहादेवीजी के प्रति और उनके गुरुओं के प्रति अपना आदर व्यक्त किया। __आपस में कई तरह से विचार-विनिमय हुआ। ये सारी बातें राजमहल में भी पहुँच गयीं । राजमहल ने भी यह सोचकर कि विचार-विमर्श समयानुकूल है और एक ही मंच पर सभी धर्म-मतों को तात्त्विक विवंचना हो जाना अच्छा है, वैसा ही निर्णय किया। श्री आचार्यजी, प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव, अद्वैत सिद्धान्त के जगदल सोमनाथ पण्डित, इन लोगों ने विचार प्रस्तुत करने की स्वीकृति भी दे दी। यह भी निर्णय किया गया कि मंच सैद्धान्तिक विचारों की उच्चता या हीनता बताने का नहीं, बल्कि परस्पर विचारों के आदान-प्रदान द्वारा एक-दूसरे को समझने के लिए हो। इसके अनुसार दोरसमुद्र के राजमहल में एक विचार-संगोष्ठी का आयोजन हुआ। उसमें राजधानी के प्रमुख पौर, पट्टमहादेवी शान्सला : भाग चार :: 155
SR No.090352
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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