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________________ आचार्य भी परिवार का निर्वहण न कर सकने वाला डरपोक । तुम दोनों का मिलन जैनधर्म के लिए दुरावा साबित हुआ है। जीत तो तब तक हमारे धर्म की हानि हो हानि है। जिस दिन तुमने हमें नीचे बिठाकर इसे ऊपर बिठाया और प्रशंसा कर सम्मानित किया, एवं इसके दास बने, उसी दिन से तुम जैन-धर्म-द्वेषी हो गये। यानी हमारे दुश्मन बन गये। यदि तुम एक साधारण प्रजा होते तो तुम्हारी परवाह नहीं करते। आज क्या हुआ है, तुम जानते हो ? सारे राज्य भर में ये ही लोग भरे पड़े हैं. ये ही तिलकधारी। तुम्हारी एक लड़की की जान बचायी तो क्या इसे सारा राज्य दे दोगे ? वेलापुरी और तलकाडु तथा यादवपुरी के मन्दिर, इन सब पर तुमने जो खर्च किया वह हमारा ही धन है न ? अपना रंग बदले तुम्हें छह-सात वर्ष हुए होंगे। कहीं एक जिनालय बनवाया ? स्वयं को सर्व धर्म सहिष्णुता का प्रतीक कहकर अपने मुँह चिकनी-चुपड़ी बातें करते हो। जिनधर्म के परमभक्त एरेगंग प्रभु, महामातृश्री एचलदेवीजी, वहाँ देवलोक में बैठ तुम्हारे इन कर्मों को देखकर आँसू बहा रहे हैं। ऐसे में तुम्हारा जीना मरना दोनों बराबर है। महासाध्वी पट्टमहादेवी जैसी देवी का पाणिग्रहण कर सकनेवाले तुमने एक भिखारी लड़की से गुप्त रूप से शादी क्यों की? इस बूढ़े आचार्य ने इस विवाह के लिए क्यों आशीर्वाद दिया ? इस पोसलों की गद्दी को श्रीवैष्णवों को देने के लिए? यह हमें मान्य नहीं। यह जैन- गद्दी है, जैनों के लिए ही सुरक्षित रहनी चाहिए। इसलिए तुमको और इस बूढ़े आचार्य को खत्म करके जैन धर्म की रक्षा करना चाहता था। इसके लिए मुझे पश्चात्ताप नहीं होता। यदि मैं कृत्य होता तो महावीर स्वामी का कृपापात्र होता। इसके लिए किसी गवाह की जरूरत नहीं। मैं स्वयं ही स्वीकार करता हूँ। तुम चाहो तो यहीं मेरा गला काट दो, मुझे इसका भय नहीं। जब धर्मनाश हो ही रहा है तब ये दोनों जैनगुरु मौन होकर जो यहाँ बैठे हैं, इनका जीना भी व्यर्थ है। धर्म के लिए आत्म समर्पण हेतु में तैयार हूँ।" वामशक्ति पण्डित ने बिना हिचकिचाहट के, हिम्मत के साथ कह दिया। तीनों गुरु आँखें बन्द किये, हाथ जोड़े मूक बनकर चुपचाप बैठे रहे। सारी सभा किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो बैठी रही । " पेश करने के लिए कोई और बात है ?" ब्रिट्टिदेव ने पूछा। उनके कण्ठ स्वर से भी उनकी मानसिक पीड़ा व्यक्त हो उठी थी । " मुख्य विषय समाप्त हुए।" चात्रिमय्या ने कहा । "तो आज की इस सभा को अब विसर्जित करेंगे।" कहते हुए विट्टिदेव उठे । घण्टी बजी। सब लोग जैसे एकदम जाग उठे और बिखर गये। राजघराने के लोग, गुरु, आचार्य, अधिकारी आदि के चले जाने के बाद कैदियों को ले जाया गया। इसके बाद दूसरे-तीसरे दिन इन सभी लोगों के न्याय हेतु विचार हुआ । उससे पिछले दिन की बातों के पूरक रूप में कुछ और बातें स्पष्ट हुई। बीरशेट्टी पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार : 153
SR No.090352
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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