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________________ हों तो यदुगिरि के मन्दिर निर्माण से भगवान् प्रसन्न होंगे।" "राजपरिवार इसमें कोई रोक-रुकावट नहीं डालेगा, यह आश्वासन देती हूँ।" शान्तलदेवी ने कहा। "मैंने प्रतिज्ञा की है। उसे पूरा किये बिना अन्यत्र मन्दिर का विचार फिलहाल नहीं कर सकूँगा। इसलिए इस कार्य को दूसरे स्थपति से करवाएँ तो मैं अपनी योग्यता के अनुसार उन्हें आवश्यक सलाह अवश्य देता रहूँगा।"कुछ संकोच से जकणाचार्यजी ने कहा। "प्रतिज्ञा ऐसी क्या है, 'पूछ सकते हैं?" आचार्यजी ने प्रश्न किया। "और कुछ नहीं। मेरे इन हाथों ने दोषयुक्त शिला से विग्रह बनाया था। उस गलती के लिए जो दण्ड मिलना चाहिए था, वह नहीं मिला। इसलिए प्रायश्चित्त होना ही चाहिए। प्रायश्चित्त के रूप में मैंने अपने गाँव क्रीड़ापुर में एक केशव मन्दिर का निर्माण करने का निश्चय किया है। उस निर्माण के पूर्ण होने तक किसी अन्य शिल्पकार्य में मेरे हाथ नहीं लग सकेंगे।" जकणाचार्य ने कहा। "गलती हुई हो तो प्रायश्चित्त भी ठीक है, लेकिन जब गलती हुई ही नहीं तो प्रायश्चित्त क्यों?" आचार्यजी ने पुनः प्रश्न किया। "यहाँ सही गलत का विवाद नहीं, उससे भी अधिक उस अहंकार की बात है जिसके लिए प्रायश्चित्त होना चाहिए।" "तो तात्पर्य यह हुआ कि भगवान् को हमारी इच्छा अँची नहीं। यादवपुरी में भी ऐसा हुआ। यगिरि में भी यही हुआ।" आचार्यजी कुछ खिन्न हो गये। "आपको दुःख पहुँचा, इसके लिए क्षमा करें। आचार्यजी क्षमा कर आशीर्वाद यह बात यही समाप्त हुई। "पोय्सल राज्य में अकाल पड़ा है, समझकर आचार्यजी ने यदुगिरि के मन्दिर के लिए अन्यत्र से धन संग्रह किया?" बिट्टिदेव ने कुछ धीमे स्वर में कहा। "न, न, ऐसा कुछ नहीं। यादवपुरी का लक्ष्मीनारायण, तलकाडु का कीर्तिनारायण, वेलापुरी का विजयनारायण, इनका उदय पोय्सल राज्य के धन के बल पर ही जब हुआ है, तब यह समझने का कोई कारण नहीं कि धन या जन की कमी है। खुले दिल के दाताओं की भी कमी नहीं, यह हम अच्छी तरह समझ गये हैं। परन्तु हमने अपनी तरफ से क्या किया? अपने शिष्य वर्ग से क्या करवाया? अब हम सब भी इस सेवा में भाग लें। खुले हाथ से दान करनेवाले दाता हैं, यह समझकर उन पर और बोझा डालना उचित नहीं । इस वजह से हमने धन-संग्रह किया है। अब दोरसमुद्र के युगल शिवालयों के निर्माण में राजमहल का कोई व्यय नहीं होगा न! यह भी ऐसा ही समझें। भक्तों पर, खासकर धनी भक्तों पर, यह जिम्मेदारी डालना अच्छा है। इसे अन्यथा न लें।" पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 129
SR No.090352
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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