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का आनन्द मिला है, एक नयी रोशनी हमें प्राप्त हुई हैं।"
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'ऐसी बात है ?" जकणाचार्य आश्चर्यचकित होकर बोले ।
'आश्चर्यचकित होने की आवश्यकता नहीं। यदि विश्वास एक मजबूत बुनियाद
पर स्थिर हो जाए तो किसी तरह के परिवर्तन की आवश्यकता नहीं। इसे प्रत्यक्ष करके उन्होंने दिखा दिया है।" यह कहकर मतान्तर से सम्बन्धित सभी पिछली बातें विस्तार के साथ आचार्यजी ने स्थपति को बतायें।
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"उनका विश्वास अटल है। परन्तु हम जैसे लोग अपनी सन्दिग्धताओं के कारण उन्हें कष्ट देते हैं। पोय्सल राज्य में मतान्तर की बात कहीं सुनने तक को नहीं मिलती थी। जैसे थे, वैसे ही ठीक था। महासन्निधान के आचार्यजी का शिष्यत्व स्वीकार करने के बाद, मतान्तर के सम्बन्ध में कुछ निम्नकोटि का व्यवहार सिर उठाने लगा है। इससे पट्टमहादेवीजी बहुत व्यथित हुई हैं।" "जकणाचार्य ने कहा ।
" तो मतलब हुआ कि एक तरह से हम उनके इस दर्द का कारण बने हैं!" "न-न, आपके में से पासआर की भने गुरु प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव पर जितनी भक्ति भावना रखती हैं, उतनी ही आप पर भी ।" ""यह आप कैसे जानते हैं ?"
"इस मन्दिर के निर्माण में जो श्रद्धा और लगन उन्होंने दिखायी, इसके निर्माण से उन्हें जो सन्तोष प्राप्त करने की आकांक्षा थी, उसके लिए जिन कल्पनाओं को साकार बनाना था उन सभी बातों को मैं जानता हूँ। यदि भावना सच्ची न होती, केवल दिखावा मात्र होता, तो मात्र कर्तव्य पालन के लिए कोई इतनी एकाग्रता से उसका निर्वहण नहीं कर सकता था।"
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'उन्होंने तो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भी, अपनी उन भावनाओं को मेरे सामने प्रकट नहीं किया।"
"वही तो बुद्धिमानी है। कलाकार अपनी कला के सृजन में संसार को सृजन करनेवाले भगवान् जैसा हैं। वह किसी को दिखाई नहीं पड़ता, परन्तु उसके अस्तित्व की झलक सर्वत्र होती है। पट्टमहादेवीजी सभी कालाओं की मूर्तिमान अवतार हैं। उन्हें कहीं प्रकट होने की आवश्यकता नहीं। मेरा अपने परिवार के साथ समागम होना ही परमाश्चर्य का विषय है। मेरे मन में जो शंका घर किये हुई थी, उसे उन्होंने किस तरह दूर कर दिया। मुझ पर कौन-सा प्रयोग उन्होंने किया, यह कुछ भी मुझे मालूम नहीं हुआ। अपने परिवार के स्मरण मात्र से ही जुगुप्सा की भावना मेरे मन में आ जाया करती थी। किन्तु जब मैंने अपनी पत्नी को देखा तब बिना किसी कड़वाहट के मैंने स्वीकार कर लिया। वह एक आश्चर्य ही तो था।"
"फिर ऐसे व्यक्ति को दुख हो तो उसका निवारण करना चाहिए न ?" " निवारण करना चाहिए। परन्तु... "
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार : 117