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बातों को भूलनेवाले उन चालुक्यों को हमें पाठ पढ़ाना होगा।" शान्तलदेवी के शब्दों में आक्रोश बढ़ आया था। आँखें क्रोध से लाल हो गयी थीं ।
फिर किसी ने कुछ कहा नहीं। थोड़ी देर बाद गंगराज बोले, "भट्टमहादेवीजी ने इन सब बातों पर गम्भीरता एवं दायित्वपूर्ण रीति से विचार किया है। हम पर इसका सीधा प्रवाह पड़ेगा अवश्य फिर भी इन बातों का विश्लेषण उन्होंने किसी पूर्वाग्रह पीड़ा के वशीभूत न होकर, एक वीक्षक की दृष्टि से किया है। हमारा कार्य अपनी इच्छा के अनुसार ही होना चाहिए। बाहर के लोग कुछ कहेंगे या कुछ करेंगे — इस तरह का संकोच या डर हममें नहीं होना चाहिए -- इस बात को भी उन्होंने स्पष्ट रूप से समझा दिया है। इतना ही नहीं, इस विषय में विरोध प्रकट न करके अपनी उदारता दर्शायी है। ऐसी स्थिति में मंचि दण्डनाथ के प्रस्ताव का विरोध करना उचित न होगा। इन सभी बातों के परिप्रेक्ष्य में मेरी यही राय है। आप लोगों की भी यहीं राय हो तो ऐसा निर्णय लिया जा सकता है।" "हमारा कोई विरोध नहीं।" एकभत होकर सभी ने निर्णय किया। सभा विसर्जित हुई।
शीघ्र ही पाणिग्रहण - महोत्सव सम्पन्न हो गया। आमन्त्रण पहुँचने पर पद्मलदेवी को भी यह बात मालूम हुई। वह आग-बबूला हो उठी। "अगर मैं इस विवाह में गयी तो महामातृश्री शाप दें। जब मुझसे रोका न जा सका तो अब 'हाँ' कहने में क्यों जाऊँ ?"- यही सोचकर वह विवाह में नहीं गया। विशेष धूम-धाम के बिना विवाह सम्पन्न हुआ। बम्मलदेवी - राजलदेवी दोनों पोय्सल रानियाँ बन गयीं।
शान्तलदेवी ने ही बिट्टिदेव को सनियों के साथ आसन्दी भेज दिया । हेग्गड़ेजी और हेम्गड़तीजी इस परिवार के साथ बेलापुरी तक गये। आसन्दी में दो-तीन महीने रहकर बिट्टिदेव यादवपुरी लौट आये।
बम्मलदेवी और राजलदेवी के साथ विवाह के बाद, उनके साथ बिट्टिदेव के आसन्दी की ओर जाने के पश्चात्, यादवपुरी के राजमहल के विस्तरण का कार्य शान्तलदेवी ने अपने हाथों में लिया। उस विस्तरण में आनर्तशाला भी शामिल थी। जो थी पहले से उसे विस्तृत करके उससे लगे प्रसाधन कक्ष एवं विश्रामकक्ष भी इस योजना के अन्तर्गत रहे। अपने पतिदेव दो और राजकुमारियों के साथ विवाह कर श्रीराम की तरह एक पत्नीव्रती न होकर श्रीकृष्ण की तरह
पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन : 95