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________________ हम स्वयं को समर्पित कर देना चाहती हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि आपके हृदय को ठेस पहुँचे। हमारी यह निश्चित धारणा रहने पर भी हमारे बारे में आपके मन में शंका उत्पन्न हुई–यह जानकर दुःख उमड़ आया।" राजलदेवी ने एक ही दम में सारी बात कह डाली। इसके पहले कभी उसने इतनी बात नहीं की थी। शान्तलदेवी ने राजलदेवी की पूरी बात बड़े धैर्य से सुनी। और कहा, "राजकुमारीजी, अब एक बात बताना चाहती हूँ। मेरे बारे में आपको शंकित होना सहज है। आप लोगों की अभिलाषा के लिए मैं काँटा बन सकती हूँ। यह मुझसे हो भी सकता है। सच पूछा जाय तो महामातृश्री से लेकर सभी लोगों की यही राय है कि यह सम्बन्ध नहीं हो। थोड़ी-सी इस बात की हवा भी लग जाय तो महारानी पालदेवी सब कुछ उलट-पुलट कर देंगी। परन्तु इसमें मैंने अपना दृष्टिकोण महामातृश्री को समझा दिया था। इसलिए मैं केवल मा हूँ। अब इसका जो भी परिणाम हो उसका मुझपर कोई असर न होगा। सन्निधान यदि आपलोगों को वीकार करें तो मैं उतना ही खुश होऊँगी जितना आप लोग होंगी। आप लोगों का स्पष्ट और दृढ़ निश्चय भी हमने दसों बार देख-समझ लिया है। आप लोगों के निर्णय में भी कम है। अंत: आप सन्निधान का वरण करेंगी तो मुझे किसी प्रकार का दुःख न होगा। मेरे इस कथन का यह अर्थ नहीं कि चाहे जो भी सन्निधान को बर ले-ऐसा न समझें। कुछ भी करें, वह औचित्य की सीमा के अन्दर ही रहे। उससे किसी का भी अहित न हो। सम्बन्धित सभी के जीवन में समरसता लाने में वह क्रिया सहायक बने। कहने का तात्पर्य यह कि सब लोगों का लक्ष्य इस सपरसता का निर्माण ही होना चाहिए। इसीलिए इस बार जब सन्निधान ने युद्धभूमि में जाने का निर्णय लिया तो बम्मलदेवीजी को बुलवाने के लिए मैंने ही सूचित किया था। विश्वास चाहे करें या न करें, मुझे बम्मलदेवी पर गौरव, विश्वास और श्रद्धा न होती तो ऐसी सूचना मैं भला क्यों देती? और फिर, आपको मैंने ही यहाँ बुलवाया था। अब आपको अकेली यों छोड़ देना आश्रय देनेवाले राजमहल की परम्परा के अनुकूल नहीं। आपके विषय में यह गौरवभाव, विश्वास और श्रद्धा न होती तो यहाँ बुलवाना हो सकता था? व्यंग्य की बात ही नहीं थी मेरे मन में। बम्मलदेवी की उपस्थिति सन्निधान में उल्लास ला देती है- यह आँखों देखी और अनुभव की बात हैं। इसमें किंचित भी व्यंग्य नहीं था। फिर भी आपको इसमें व्यंग्य की गन्ध आयी सो मेरी समझ में ही नहीं आया ।" ''सकल कला- पारंगत आपके वचन-विन्यास को समझने की शक्ति पुनमें कहाँ! मुझे जैसा लगा सो सच-सच कह गयी। लेकिन मुझे अब मालुम हुआ कि मेरा 90 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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