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________________ को समझ पाना दुस्साध्य है। उस दिन आपने जो कहा वह अक्षर-अक्षर सत्य है। उनकी रीति कभी-कभी बड़ी ही विस्मयजनक हो जाती है।" "सन्निधान ने खुले दिल से सभी बातें कहीं, इसके लिए मैं आजीवन कृतज्ञ रहूंगी। मेरे मन में इस दाम्पत्य की गहराई का स्पष्ट चित्र अंकित हो गया है। प्रकारान्तर से इन सभी बातों को मैंने चट्टला, मायण, रेविमय्या, महामातश्री और हेग्गड़तीजी-इन सभी से जाना है लेकिन मैं अपने को सन्निधान के चरणों में समर्पित कर चुकी हूँ। यह पूछे कि इसका क्या कारण है तो मैं बताने में असमर्थ हूँ। परन्तु यह समर्पण अचल है, इसके सुदृढ़ होने का कारण यह राजलदेवी है। उसके मन में भी मेरी जैसी भावनाएँ उत्पन्न हुई हैं। वह बोलती कम है, उसका स्वभाव है। उस पर भी, जब मैं होती है तो सारी बातें मेरे लिए सुरक्षित। मैंने उसके साथ खुले हृदय से चर्चा की है। उसी ने मुझसे कहा कि हम चरणदासी समें तो घर कोई निन्दनीय कार्य गर्ग होगा! या अनुचित कार्य भी नहीं और आधक भी नहीं। क्योंकि हम दूसरा स्थान ही चाहती हैं। सन्निधान की हृदयेश्वरी बनने का हक और किसी को भी नहीं है। परन्तु चरणदासी बनने का लाभ हम बहुतों को मिल सकता है। इसलिए हम दोनों का एक निश्चय हो और उसी को प्रस्तुत किया जाय तो शायद स्वीकृति मिल सकती है-यही हमारा अभिप्राय था।" बिट्टिदेव हँस पड़े। "क्यों? सन्निधान को हमारी बात ठीक नहीं लगी?" "आमतौर पर सभी लोग अग्र-म्यान ही चाहते हैं। ऐसी हालत में दूसरे या कनिष्ठ स्थान की इच्छा करें तो हँसे बिना कैसे रहा जा सकता है।" "वास्तविकता की प्रज्ञा जिनमें न हो वे अग्न स्थान चाहेंगी। अग्रस्थान एक ही होता है। परन्तु उसके बाद के स्थान अनेक। अग्र स्थान के लिए स्पर्धा करें तो फल विरसता ही होगी। उस स्थान की आकांक्षा न करके उससे निचले स्थान की चाह करें तो विरसता के लिए कोई कारण ही नहीं रह जाता। विरसता से किसी को सुख नहीं प्राप्त होता इस बात को हम जानती हैं। और फिर, जितनी सरसता मिले उसी को साक्षात् मानें तो विरसता के लिए अवकाश ही कहाँ रह जाता है?" ''यह सब बातों में ही है। कार्यक्षेत्र में उतरने पर ऐसा रह नहीं पाता, इसे आप भी जानती होंगी।" "बहुवचन का प्रयोग छोड़ दें तो होगा न?" "पोय्सल सिंहासन के लिए, एकवचन का प्रयोग अनुचित रीति है । सो भी स्त्री के प्रति गौरव की भावना रखना एक उत्तम परम्परा है। इस विषय में हमारी स्वतन्त्रता बनी रहनी चाहिए।" पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 83
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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