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थीं, उनसे निवेदन भी किया। मगर पद्मलदेवी ने माना नहीं कहा, "बड़ी होने के नाते मेरा जो आदर सम्मान रहेगा वह राजमहल के अन्दर तक सीमित रहे। ऐसे सार्वजनिक समारम्भों पर मैं इनके लिए अपनी स्वीकृति नहीं दूंगी।" इसलिए वे दूसरे मंच पर बैठ गयी थीं। उनके साथ बम्मलदेवी और राजलदेवी भी बैठी थीं। ऐसी व्यवस्था की गयी थी कि पैदल सेना पाँच पाँच की टोली में आगे चलेगी और उसके पीछे घोड़ों पर मन्त्रिगण, दण्डनाथ चलेंगे। इनके पीछे घुड़सवार, इसके बाद हस्तिदल, गुल्मनायक, घुड़सवार नायक, दोनों एक-एक सैन्यगुल्म के मार्गदर्शक बनकर आगे रहें। उनके साथ दो-दो ध्वजधारी तोमरधारी रहेंगे। इस विशाल मैदान की दक्षिण दिशा में एक बड़ा फाटक था। उसके बायीं ओर से उपस्थित जनस्तोम के निकट ही, कतारों में सेना के चलने की व्यवस्था की गयी थी ताकि सब लोग इस बृहत् सैन्य को अपनी आँखों देख सकें। पालकियों और रथों के प्रदर्शन करने की सलाह खजांची ने दी थी परन्तु पता नहीं क्यों ऐसा निर्णय किया गया कि अब इनका प्रदर्शन न हो।
निश्चित मुहूर्त में मंगल वाद्य घोष के साथ और पोय्सलों के सांकेतिक पंचमहावादों के उद्घोष के साथ यह सैन्य जयजयकार करता हुआ इस मैदान में प्रविष्ट हुआ। समवस्त्र सच्चित यह विशाल सेना बहुत सुन्दर और आकर्षक लग रही थी। पैदल सेना के सैनिक हाथ में तलवार लिये आगे-आगे चल रहे थे। उनके पीछे सीर-कमानवाले सैनिक और उनके पीछे तोमरधारी अश्वगुल्म और अन्त में हस्तिदल - इनका क्रम से एक के बाद एक के चलने में ही दो प्रहर का समय लग गया। ठीक सूर्यास्त के समय तक सम्पूर्ण मैदान मशालों की रोशनी से जगमगा उठा। राजदम्पती जिस मंत्र पर विराज रहे थे वहाँ दो बड़े दीपदानों में प्रदीप जगमग कर रहे थे। उपस्थित जन स्तोम के बीच एक-एक बाँस की दूरी पर मशाल लगाने के लिए स्तम्भ खड़े किये गये थे। सर्वत्र मशाल एक साथ जगमगा उठे। सारे मैदान में प्रभावलय- सा प्रकाश फैल गया। अब ध्वजधारियों के बदले दोनों ओर मशालची आने लगे। इन दीपों के प्रकाश में तीर तलवार और शिरस्त्राण चमक उठे। चारों ओर विद्युत प्रकाश जैसा फैल गया। लोग आश्चर्यचकित होकर देखने लगे। कितना समय बीत गया किसी को पता तक न लगा। राज परिवारों के और अन्य अतिथियों के निर्गमन की व्यवस्था अलग-अलग की गयी थी। अश्वदल द्वारा बाँस बाँस की दूरी पर तैनात रहकर जनसमूह नियन्त्रित किया जा रहा था। उधर बच्चों के चढ़ने के बाद शान्तलदेवी भी रथ में बैठ गयी थीं। बिट्टिदेव आरोहण करनेवाले ही थे कि इतने में कहीं से जोर की आवाज सुन पड़ी - हाय हाय, रास्ता दो, रास्ता दो!" बिट्टिदेव ने मुड़कर देखा। किसी ने उनका हाथ पकड़कर जोर से खींचा। वह गिर गये। उन्न... एक जोर की आवाज
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64 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग सीन