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"वे तो जैन हैं, शिव-पार्वती कैसे बन सकते हैं?"
छ भी सामने हैं। दनु सब भावना पर आधारित है। कल एक विष्णुभक्ता कह सकती है कि ये साक्षात् लक्ष्मी-नारायण हैं।"
"मतलब यह हुआ कि पट्टमहादेवी ने पाठ भी पढ़ाया है।"
"उनका मन ही खुली किताब है। ऐसी हालत में क्या नहीं मिलेगा? जो चाहें सब मिल जाता है। खास कर उनसे ही विद्या सीखनी चाहिए। उनकी बातें सुनते रहने से मन विकसित और पवित्र हो जाता है। यह किसी पूर्व पुण्य का फल है। हमें एक महान् आश्रय मिला है। इस आश्रय को छोड़ दें तो वह मूर्खता ही होगी।"
"कुल मिलाकर सभी बातों का विचार कर आप यह निर्णय कर चुकी हैं। भगवान आपका भला करे। आपसे पट्टमहादेवी को सन्तोष ही मिलता रहे।"
कुछ और कहने के लिए पद्यलदेवी को मौका ही क्या रहा? वह पूछ सकती थी-'सन्निधान से विवाह करने की इच्छा है-सुना था।" परन्तु यों पूछना उचित नहीं ऊँचा । उस बात को वहीं समाप्त किया और कहा, "चाहे कहीं भी रहूँ, आपके विवाह में मैं उपस्थित होऊँगी ही," कहकर उस विचार को पूर्णविराम दे दिया।
पालदेवी तो राजधानी चली गयी थीं। इधर बम्मलदेवी के हृदय में पद्मलदेवी की यह बात "सन्निधान का सान्निध्य-स्थायी बनकर रह गयीं। उसके मन में वह विचार फिर से जानत हो उठा। यों तो सान्निध्य चाहने एवं ऐसे सान्निध्य में रहने की इच्छा करने के योग्य उम्र ही तो है उसकी। इसी धुन में जाने क्याक्या कल्पनाएँ उठा करती : परन्तु उस विचार को पट्टमहादेवी स्वीकार करेंगी? इस बारे में उनसे पूछे भी तो कैसे? अगर मैं अपनी इस इच्छा को प्रकट करूँ तो मुझे ये कितना हीन समझेंगी? मेरा जीवन ऐसे ही अकेलेपन में चाहे बीत जाय कोई चिन्ता नहीं। मेरी वजह से पट्टमहादेवी को किसी तरह का दुःख नहीं होना चाहिए--यही निर्णय बार-बार कर लेती। परन्तु सान्निध्य की कल्पना तो उसके मन से दूर नहीं हो सकी-मैंने वर लिया। अभी वह अपूर्ण है। परिपूर्ण होने का भाग्य हो तब तो। नहीं तो इसी तरह समय बिता देंगे। ऐसी डांवाडोल हालत में बम्मलदेवी दिन गुजारने लगी। राजलदेवी न सोचती, न कहती-चुप रह जाती। बम्मलदेवी के लिए जो होगा वही मेरे लिए होगा-वह इसी निर्णय पर स्थिर रही। वास्तव में बिट्टिदेव के सान्निध्य के किसी अवसर ने वैसा प्रेरक प्रभाव उस पर नहीं डाला था। शायद ऐसा कोई मौका ही उसे नहीं मिला था।
इस बीच राष्ट्र के किसी भी कोने से कोई युद्ध से सम्बन्धित सूचना नहीं दिख रही थी; फिर भी कुछ राष्ट्रों--आलुप, चालुक्य, मोलम्ब, चोल, पाण्ड्य राज्यों की ओर से एक तरह की सूचना मिल रही थी कि वातावरण कुछ गरम
52 :: पट्टपहादेवी शान्तला : भाग तीन