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________________ 'अपनी स्पर्धा में मैं जीत गया न ? तब... 'करते तो करते " LL " "अपनी बात को बनाये रखता । " 11 'अनाये रखते। उससे मातृद्रोह होता। आपसे कहीं ऐसा काम न हो जाय इसलिए हम पहले ही चेत गये। एक बात में जीतने पर भी दूसरी बात में हारे । स्थपतिजी का भी यही हाल है। वे भी हारे और जीते हैं। ये भी आपकी ही तरह हठी हैं। नहीं-नहीं, आप भी वैसे ही हैं। आप लोगों की इस परीक्षा- क्रिया के फलस्वरूप आप लोगों को किस तरह का दण्ड दें, इस बात का निर्णय करने का दायित्व महासन्निधान ने मेरे ऊपर छोड़ रखा है। परन्तु मैं यह काम नहीं करूँगी। अपनी ओर से एक न्याय देवता आपके समक्ष खड़ा करूँगी। बाद में क्या होगा, सो आप तीनों पर छोड़ती हूँ। रेविमय्या ! उस महामाई को बुलवा लाओ !" शान्तलदेवी ने कहा । " कुछ ही क्षणों में एक शिविका आयी। उसके अन्दर से एक देवी उतरी। 'आप दोनों इस न्याय देवता के समक्ष हो; यह जो कहे, उसके अनुसार दोनों को अब चलना होगा, यही महासन्निधान का निर्णय है।" शान्तलदेवी ने कहा । दोनों ने चकित होकर उस देवी की ओर देखा । तुरन्त स्थपति के मुँह से निकला, "लक्ष्मी! तुम यहाँ ?" "माँ ! तुम यहाँ ?" युवा शिल्पी के मुँह से निकला । वह स्थपति के पास आयी। उनके पैर छुए और प्रणाम किया। कहा, “स्वामी, मैंने जो भी भूल की हो, क्षमा करें। किसी पूर्वजन्म के पाप ने हमें इतने वर्षों तक पृथक् रखा। आपकी खोज में निकला यह आपका पुत्र डंकण साल-पर-साल बीतते जाने पर भी लौटा नहीं इसलिए मैंने अपने बड़े भाई के पास सूचना भेजी। वे यहाँ निर्माण होनेवाले मन्दिर के बारे में सब विवरण बताकर मुझे यहाँ कल साथ लाये । 'यहाँ की कहानी और आज सुबह घटी सारी घटना की बात सुन-समझकर कि जैसा बाप वैसा ही बेटा है, मैंने अपना सारा वृत्तान्त पट्टमहादेवीजी से निवेदन किया। उनकी कृपा का ही परिणाम है यह मिलन।" कहकर उन्होंने शान्तलदेवी की ओर देखा और बोलीं, 'इन पिता-पुत्र की हठवादिता का निवारण करने की शक्ति मुझमें नहीं है, इसीलिए मैंने सुदीर्घ काल तक इस दुःख को सहन किया। हठ ठाना है, मुँह से बात निकल चुकी हैं, हारने पर दण्ड भोगेंगे ही- यो दोनों हठ पकड़ें तो मेरे लिए सहारा हो कौन है ? इसलिए सन्निधान से एवं राज्य के अधिकारी वर्ग के समक्ष मेरी यही विनम्र विनती है, किसी तरह के अंग-भंग जैसा दण्ड दिये बिन्स इन दोनों की रक्षा हो। इनकी भूलों को उदारता से क्षमा करें। मैं कभी घर से बाहर नहीं निकलो। यहाँ आकर इतने जन-समूह के समक्ष पट्टमहादेवी शान्तला भाग तोन 483
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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