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पट्टमहादेवीजी स्पष्ट करेंगी। इस देव-पण्डुक को देखने का कुतूहल सभी में है-यह सहज ही है। इसके लिए उचित व्यवस्था दोपहर के बाद की जाएगी। धक्कम-धुक्की के बिना सब आराम से देख सकेंगे। अब आगे का कार्य पट्टमहादेवी का है। वे बताएंगी।" इतना कहकर महाराज अपने आसन पर विराजमान हो गये।
पट्टमहादेवो उठ खड़ी हुई। सब उनकी ओर देखने लगे। एकाग्रभाव से वे जो कह रही थी, कान लगाकर सुनने लगे। उन्होंने कहा, "प्रिय पोय्सल प्रजाओ! आज का दिन इस वेलापुरी के इतिहास में एवं पोय्सलों के इतिहास में एक महान् दिन है। जिनके बारे में हमने स्वप्न में भी नहीं सोचा-सुना था, ऐसी घटनाएँ कल-परसों के दो दिनों में घट गर्यो। उसका एक अंश अब आप सभी को ज्ञात हो गया है। शिला को निर्दोष कहने वाले स्थपति ने अपनी हार मान ली है। वैसे ही पत्थर में सजीव प्राणि न होगा, कहने वाले वह युवा शिल्पी हार गये। यहाँ दो हार और दो जीत हुई हैं। अब राजमहल के सामने दायित्व का सवाल उठ खड़ा हुआ है। जीत को मान्यता दें कैसे और हार का दण्ड दें भी तो कैसे, इस बात की चर्चा उनके सामने करना हमें उचित नहीं जंचता। इसलिए सन्निधान कुछ और समय तक इन दोनों बातों को अभी सम्मुख न लाने की कृपा करें।"
महाराज ने उदयादित्य की ओर देखा। वह और कुंवर बिट्टियण्णा दोनों शिल्पियों को रक्षक-दल की सहायता से एक दूसरे स्थान पर ले गये।
इसके बाद शान्तलदेवी ने कहा, "हम क्या-क्या आशा-आकांक्षाओं को पालपोसकर बढ़ते हैं परन्तु हमें उनका फल किस तरह का मिलता है-यह पता नहीं होता। माता की अभिलाषा को पूर्ण कराने, उनके साथ बाहुबलि के दर्शन के लिए चाउण्डराय निकले तो श्रवणबेलगोल ही में बाहुबलि ने दर्शन दे दिये । यह अनिरीक्षित था। परन्तु उसका फल, उनकी माता की इच्छा का फल यह कि हमारे कन्नड़ प्रदेश को भव्य बाहुबलि मिल गये। आप पूछ सकते हैं कि यह बात क्यों? यहाँ भी एक माँ की आशा को सफल बनाने का कार्य चला है। हमने न चाउण्डराय को देखा है न उनकी माँ को ही। परन्तु आज यहाँ इस दिन को महत्त्वपूर्ण बनानेवाली उस महासाध्वी को मैंने देखा है। आप सभी देख सकते हैं। यह युवा शिल्पी उन्हीं साध्वी माँ का पुत्र है, जो अपनी प्रज्ञा से प्रस्तर में दोष दिखाने की क्षमता रखता है। वह अपनी माँ की इच्छा को जानकर उसे पूरा करने के उद्देश्य से घर छोड़कर निकला है। जब तक कार्य में सफलता न मिले, तब तक वापस न आने का वचन देकर, माँ से विदा हुआ। घर छोड़े दो-तीन साल बीत गये। इतना समय हो जाने पर भी बेटे के न लौटने के भय से भीत माँ, यह सोचकर कि सम्भवतः
480 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन