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________________ "रहने दीजिए। कोई बात नहीं। सुना कि आदेश हुआ।" "हाँ, तुम जानते हो क्यों ?" "मेरी धृष्टता पर डाँटने के लिए हो सकता है।" "यदि तुमको ऐसा लगा होता तो तुम अपने को संभालकर संयम बरत सकते थे न?" वह धक्क से रह गया। उसने पट्टमहादेवी की ओर देखा। "डरने की कोई बात नहीं। पट्टमहादेवी ने उदारता दिखायी। "यह तुमने विनीत होकर बताया; मेरा मन्तव्य तुमको जचा नहीं, यही मेरा भाव है। लोग मेरे मन्तव्य को मान लें-यह हठ मेरा कभी नहीं रहा। मैं जब अपने विचारों को सही और निश्चित रूप से ठीक समझती हूँ, तब दूसरों को मानने को विवश करती हूँ। मैं समझती हूँ कि तुम भी इसी तरह का हट पकड़े बैठे हो। परन्तु जैसेजैसे अनुभव बढ़ता जाता है, सत्यान्वेषण के साथ और हठ पकड़ने की प्रवृत्ति के होते हुए भी उदारता से विषय का परिशीलन करने की प्रज्ञा उत्पन्न होती है।" "औदार्य की लपेट में आक.: ५ आमाग रह जाना होगा?" "औदार्य का लक्ष्य कभी सत्य को छिपाना नहीं। जब कार्य करते हैं, तब कोई-न-कोई त्रुटि रह जाती है। यह सहज ही है। यदि वह त्रुटि बुरे उद्देश्य से प्रेरित न हो और अज्ञानवश हुई हो तो ऐसे अवसर पर उदारता से देखना युक्त है। उदारता सदा हो दण्ड देने पर विचार करती है। अब बताओ, मैंने जो उदारता दिखायी, वह तुम्हारे लिए या स्थपति के प्रति रही?" "यह मुझे कैसे पता होगा?" "क्यों नहीं पता होगा! तुमने अपना निर्णय ठीक मानकर उसे सिद्ध करने का प्रण किया है न?" "हाँ, इस विषय में मेरी राय निश्चित है।" "तब तो मेरी उदारता स्थपति के प्रति है-यही भावना लेकर तुमने वह बात कहीं न?" "हो सकता है।" "तब मेरी उदारता तुम्हारी दृष्टि में व्यंग्य ही हुई न?" "मेरे मन में ऐसे विचार ही नहीं उठे।" "तुम्हें पता है कि मनुष्य में दो मन अर्थात् एक जाग्रत पन तथा दूसरा सुप्त मन, रहते हैं?" "मुझे नहीं पता।" "इसीलिए तुम्हारी बात का व्यंग्य तुम्हें नहीं जान पड़ा।" "सन्निधान के प्रति मेरे मन में गौरव है, इसलिए मैंने ऐसा कहा।" पट्टमहादेवी शाला : भाग तीन :: 469
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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