SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 447
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ था। मूर्ति के अंग-प्रत्यंग को उँगलियों से माप रहा था। विग्रह के अंग-प्रत्यंग को मापकर प्रतिमा-लक्षण से मिलान कर रहा था। उस मूर्ति के अंग-प्रत्यंगों का माप शास्त्रोक्त लक्षणों के अनुसार किया जा रहा था। उस युवा को तल्लीन देख तिरुवरंगदास ने उससे पूछा, "तुम इस स्थपति के शिष्य हो?" "मैं किसी का शिष्य नहीं हूं। यह मेरा वंशानुगत गुण है।" "ऐसा है! तो तुम यहाँ शिल्प का काम कर रहे हो?" "नहीं, मैं आज ही यहाँ आया हूँ।" "माही में आये ?" "मैंने अपने जीवन में कुछ खोया है उसे खोजता हुआ चला आया।" "वह क्या है?" "किसी से न कहने की आज्ञा दी है, माँ ने।" "किसी से न कहोगे तो वह खोयी हुई वस्तु तुम्हें मिलेगी कैसे?" "अगर वह मिलेगी तो मुझ अकेले ही को मिलेगी दूसरों को सो उसकी पहचान तक नहीं होगी।" "तुम्हारा गाँव ?" "उससे आपका तात्पर्य ?" "यों ही पूछा। यह क्या-अंग-प्रत्यंग की माप ले रहे थे?" "यह प्रतिमा-लक्षण के अनुसार है या नहीं, इसी को देखने के लिए।" "तो प्रमाण इतना ही होना चाहिए, ऐसा ही होना चाहिए, यह सब कहा गया "आपकी वेशभूषा और लांछन आदि देखने पर आप वैदिक-से लगते हैं। आपको भी तो आगम शास्त्र का परिचय होना चाहिए?" "परिचय तो रहता ही है। परन्तु हम अपनी वृत्ति के लिए, जितना चाहिए उतना ही हम सोचते हैं। केवल वेद, शास्त्र आदि का अध्ययन करने में ही लगे रहें तो अपनी वृत्ति के लिए अवकाश ही नहीं मिलेगा। इसलिए पूजा-अर्चा और अन्य पौरोहित्य (पण्डागिरी)करने-कराने के लिए जितना जानना आवश्यक है, उतने से ही हमारा प्रयोजन रहता है।" "जो कुछ वेद या वैदिक है, वह सब अपना स्वस्थ है, दूसरों का नहीं कहनेवाले आप लोग उसके सम्पूर्ण स्वरूप से परिचित नहीं हैं।" "बेटा, मनुष्य को पहले जीवित रहने की कला आनी चाहिए। जीने के लिए आवश्यक विद्या सीखनी चाहिए। शेष बातें तो मठ के महन्तों के लिए छोड़ रखनी पड़ती हैं। शिल्पियों के लिए भी यही है। निश्चित और नियोजित कार्य कर सकने की कुशलता हो तो उनके लिए पर्याप्त है। यह सब शास्त्र-विचार किसलिए?" पट्टमहादेवी शान्तला : भाग हीन ::- 449
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy