SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 443
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारत जाने पर अपने किसी एक सहायक को यादवपुरी का काम सौंपकर, वेलापुरी चला आया था। यहाँ आने पर अपनी इच्छा के सफल होने का कोई लक्षण दिखाई नहीं पड़ा। फिर भी उसने कुछ गुनकर उसी निवास में जड़ जमा बैठने की बात सोची। फिर यहाँ के लोगों को देख-समझकर, परिस्थिति को जानकर, बाद में कुछ करने का निर्णय कर लिया। इस बात का ध्यान रखा कि कोई भी काम करे, उसे ऐसा करना होगा कि कोई प्रतिक्रिया का आभास न मिले। यह सब सोचकर उसने सबसे हँसते, मिलते-जुलते रहने का निर्णय किया। आने के दूसरे ही दिन उसने लक्ष्मीदेवी से मिलकर विस्तार से बातचीत की और अच्छी तरह से उसके कान भरे। कहा कि अवश्य कोई मेरा गुप्तशत्रु है, जिसने महासन्निधान को मेरे विरुद्ध भड़काया है, यहाँ तक कि आचार्यजी को भी मेरे विरुद्ध कर दिया है। उनके मन की इस भावना को दूर करने के लिए आत्म शुद्धि से सेवा-कैंकर्य में लगे रहकर ही इस भाव को मिटाना होगा, परन्तु इसके लिए भी यहाँ परिस्थितियाँ साथ नहीं दे रही हैं-आदि-आदि ऐसी ही बातें बताकर लक्ष्मीदेवी के मन में परिस्थिति का मनचाहा चित्र बिठा दिया। वह बेचारी कुछ करने की स्थिति में नहीं रही। पहले कुछ व्यक्तियों के बारे में उसके जो बिचार रहे, वे अब नहीं थे। अज्ञानवश उसमें जो भावनाएँ उत्पन्न हुई थीं, वे सब दूर हो गयी थीं। यहाँ की व्यवस्थित रीति भी उसे भली लगी थी। वास्तव में शाम्सलदेवी ने उसे सीधा उपदेश तो नहीं दिया था, किन्तु उनके अपने व्यवहार से सबको अपना बना लेने के बरताव के कारण, जैसे सब उन्होंने प्रिय पात्र बन गये थे, वैसे यह भी प्रिय पात्र हो गयी। निरहंकार, स्थान-पद के आडम्बर से दूर पट्टमहादेवी अपने को प्राज्ञ नहीं समझती। उनके शान्त, सन्तोष, उत्साह और सरलता के व्यवहार ने ही सबके मन में पट्टमहादेवी के प्रति गौरव उत्पन्न कर दिया था। इन सब बातों से अच्छी तरह परिचित लक्ष्मीदेवी, अपने पिता की किसी भी बात को प्रोत्साहित कर सकने की स्थिति में नहीं थी। उसने एक ही बात अपने पिता से कही, "दूसरों के कार्यों में हस्तक्षेप न कर अपना काम जो हो सो करते रहने से विरोध होगा ही नहीं। बदले में गौरव मिलेगा। आप अतिथि बनकर आये हैं। सुख से दो-चार दिन रहकर सन्तोष से समय बिताएँ। सम्पूर्ण जीवन श्रम करके ही तो बिताया है।" "बेकार रहकर समय बिताना नहीं हो सकता है, बेटी!" "यहाँ नियुक्त हुए बिना कोई काम नहीं कर सकते न?" "तुम्हें महासन्निधान से कहना चाहिए। कुछ कुतन्त्री लोगों ने महासन्निधान से मेरे विरुद्ध कहकर उनका मन बिगाड़ दिया है। मुझे सब विधियों का ज्ञान है अतः मेरी सलाह मानकर यहाँ के कार्यों में मेरा उपयोग करें।" पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 445
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy