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________________ "मन्दिर के महाद्वार के ऊपर के हिस्से को वैसे ही खाली रखा-सा दिखता है न? "हाँ, उसे इच्छापूर्वक वैसे ही खाली रखा है।" "वहाँ कुछ और बनाकर सजाने का विचार है? कुछ इस पर निर्णय हुआ है?" "नहीं! इसके लिए सन्निधान और पट्टमहादेवी को निर्णय करना है।" "मुझे लगता है..." कहते-कहते रुक गयी और स्थपति की ओर देखा। "आज्ञा हो।" "वह ठीक है या नहीं कहते संकोच होता है न।" "कौन जानता है, जो आपके मन में भावना उत्पन्न हुई है, वही सम्भवतः ठीक "आचार्यजी के शिष्यत्व को जो सन्निधान ने स्वीकार किया, उसे चित्र में रूपित कर उसे यदि उस जगह पर सजा दें तो अच्छा होगा, मुझे लगता है।" "अभिमत पर विचार किया जा सकता है। इसके लिए आचार्यजी की स्वीकृति लेनी आवश्यक है। उनसे विचार-विनिमय किये बिना अन्तिम रूप से निम नहीं किया जा सकता।" "हाँ तो, मुझे विश्वास है कि वे स्वीकार करेंगे। महाराज को शिष्य के रूप में ग्रहण करना ऐतिहासिक महत्त्व की घटना है। यह उनके जीवन की भी एक अन्यतम घटना है। यदि यहाँ वह रूपित हो जाय तो इसके लिए ऐतिहासिक महत्व भी मिल जाता है।" "आपने जो कहा सो ठीक है।" "इस सबको देख आने के बाद एक कमी और दिखाई देती है।" "सो क्या है, निस्संकोच कहें।" "अनेक मूर्तियों के नीचे उनके बनानेवाले शिल्पी का नाम एवं उनकी बिरुदावली आदि है। परन्तु आपका कहीं नाम नहीं है। जबकि इस महान् कृति के निर्माण की मूल-कल्पना आमही ने दी। ऐसी स्थिति में कहीं-न-कहीं आपका नाम होना ही चाहिए।" "नाम को स्थायी बनाये रखने की मेरी अभिलाषा नहीं है। मेरा लक्ष्य केवल इतना ही है कि कृति स्थायी रहे। इसके अतिरिक्त मेरी किसी तरह की लौकिक इच्छा नहीं। परिवारियों के बीच में रहकर संन्यास स्वीकार न करने पर भी मैं संन्यासी हूँ। मेरा नाम संसार को ज्ञात न हो, यही मेरा निर्णय है। कहीं भी अपना नाम उत्कीर्ण नहीं कराऊँगा।" "ऐसा क्यों? पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 437
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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