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________________ "तो मेरे साथ राजमहल से बाहर चल सकोगी?" रानी लक्ष्मीदेवी को लगा कि पूछे कहाँ? जब उन्होंने खुद बुलवाया है तो सोचा कि कोई पूर्व योजना अवश्य होनी चाहिए। फिर कहा, "अच्छा, मेरा यह पहनावा बाहर जाने योग्य नहीं, तुरन्त बदलकर आती हूँ।" "ठीक है, विलम्ब अधिक न हो?" इसके बाद लक्ष्मीदेवी अपने अन्तः पुर में गयी। शान्तलदेवी ने रेविमय्या को बुलाकर कहा, "स्थपति से कहो कि वे मन्दिर के पास पधारें और यह भी बता दो कि मैं और छोटी रानी वहाँ आएँगी और चट्टला भी साथ रहेगी।" शोघ्र ही व्यवस्था हो गयी। पट्टमहादेवी और रानी लक्ष्मीदेवी दोनों मन्दिर की ओर चल पड़ी। लक्ष्मीदेवी कुछ सज-धज ही आयी थी परन्तु शान्तलदेवी बिलकुल साधारण, सौम्य और निराभरण सुन्दरी लगती थीं। इन सबके पहुंचने से पहले ही स्थपति वहाँ पहुँच चुके थे। शान्तलदेवी ने कहा, "अवकाश के दिन ही विश्राम को भी हमने आपसे छीन लिया; इसके लिए क्षमा करें। हमारी छोटी रानीजी ने चाहा कि इस मन्दिर का निर्माण-कार्य एकान्त में देखें। इसलिए आपको कष्ट देना पड़ा।" "मुझे विश्राम करने का अभ्यास ही नहीं। अपने आवास पर भी कुछ-न-कुछ काम करता ही रहा है।" "तो अपने आवास पर भी काम में लगे रहते हैं?" "सन्निधान इस मन्दिर निर्माण के कार्य पर कितना श्रम कर रही हैं, इससे मैं परिचित हूँ। सन्निधान के श्रम के सामने मेरा कार्य नगण्य है। मैं केवल सेवक हूँ। आज्ञा हो।' "इस मन्दिर के ढाँचे की कल्पना से लेकर अब तक जो कुछ कार्य हुआ है, वह सब हमारी छोटी रानीजी को बताएँ। इस मन्दिर के निर्माण की प्रेरणा आचार्यजी की है। हमारी रानोजी उनके कृपापूर्ण आशीर्वाद से अनुगृहीत हैं। एक कला-निर्माण के पीछे क्या सब होना चाहिए, यह कितना नियमबद्ध और निष्ठायुक्त कार्य है-यह सब उन्हें समझाइए। यह राजवंश किन-किन कार्यों में गहरी रुचि रखता है, उस सबका परिचय इन्हें होना चाहिए न?" "जो आज्ञा । पहले प्रारूप को समझाकर बाद को कृतियों का परिशीलन करेंगे।" "सारे प्रारूप आपही के पास हैं?" "कार्य समाप्त होने के बाद शिल्पी प्रारूप मुझे ही लौटा देते हैं।" "ठीक, वे कहाँ हैं?" 416 :: पट्टमहादेवो शान्तला : भाग तीन
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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