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करनेवाले हैं। इस मन्दिर के निर्माण का उत्तरदायित्व, इसकी रूपरेखा का निर्णय, सब पट्टमहादेवीजी का। अन्य मतावलम्बी होने पर भी उनकी तत्त्व-निष्ठा की रीति आचार्यजी को बहुत प्रिय है। निश्चय ही उनका व्यक्तित्व बहुत महान् होगा, इसीलिए आचार्यजी ने उनकी प्रशंसा की है। यों ही वे किसी की प्रशंसा नहीं करते। मुझे भी उन्होंने यही समझाया है कि कभी भी कार्य करना हो तो पहले उन्हें बताकर, उनकी स्वीकृति लेकर ही करें। आचार्यजी का मत मेरे लिए अटल है।"
"उनके सभी शिष्यों का तो यही कर्तव्य है कि उनके आदेश का पालन करें। मैं भी तो उनके आदेश के अनुसार चलनेवाला हूँ न? यहां आप लोगों के लिए सभी सुविधाएँ हैं न? कुछ और चाहिए हो तो मुझे बताइए।"
"जो आज्ञा" कहकर वे चले गये।
रानी लक्ष्मीदेवी को एक तरह की चिन्ता होने लगी : पिताजी को धर्मदर्शी बनकर यहाँ आने की बात तो दूर, अब तो इस प्रतिष्ठा के अवसर पर भी आ सकने की सम्भावना तक नहीं दिखाई देती। स्वयं बुलवाकर आचार्यजी ने मेरे पिता से क्या कहा होगा? पिता ने तो कहा था कि आचार्यजी को सन्तुष्ट करके यहाँ आने की बात निश्चित करेंगे। तिरुमलाई ही में अनुभव प्राप्त करनेवाले मेरे पिता को यहां के इस नवीन मन्दिर के आरम्भोत्सव में कोई स्थान नहीं? इससे तो यही लगता है कि कोई उनका प्रबल द्वेषी यहाँ है अवश्य! निरन्तर उनके विरुद्ध दुष्प्रचार का कार्य चल रहा है। निश्चय ही सर्वप्रथम उसका पता लगाकर महाराज को बताना चाहिए--यों उसने किया, किन्तु पता लगाने का काम करे कौन? उसके लिए वेलापुरी का बातावरण ही नया था। सब लोग उसे गौरव के साथ देखते। उसकी व्यक्तिगत इच्छा-आवश्यकताओं के अनुसार यहाँ का जीवन बीतने लगा था। उसने सोचा था कि पहले पट्टमहादेवी की इच्छाएँ सम्पूर्ण होने के बाद ही हमारी इच्छा आकांक्षाएँ पूर्ण होंगी। परन्तु ऐसा कुछ नहीं था। विवाह के बाद से लगातार महाराज का संग उसी के साथ अक्षुण्ण बना रहा, यह तो स्पष्ट ही था। महाराज भी उसके साथ प्रारम्भ से ही सहज व्यवहार करते रहे। ऐसी स्थिति में कभी-कभी उसे लगता था कि अपने पिता के बारे में महाराज से बात छेड़ें। फिर भी, वह साहस न कर सकी। धुन की तरह यह बात उसके हृदय और मस्तिष्क को छेदती रही, किन्तु वेलापुरी की रीति-नीति और लोगों को समझने में ही उसका समय बीतता गया।
दिन बीतते गये। सभी अनवरत अपने-अपने कार्य में जुटे थे। किसी को यूँ ही बैठे-ठाले समय बिताते नहीं देखा। एक ओर मन्दिर में प्रतिष्ठा का कार्य पूर्णता पर पहुंधता जा रहा था तो दूसरी ओर विजयोत्सव की तैयारी। लोगों को बसाने, भोजन आदि की व्यवस्था, जानवरों के लिए दाना-पानी की व्यवस्था, इसके साथ
पट्टमहादेवी शान्तला : भा! तीन :: 405