________________
बात पिता को बताने के लिए भी समय नहीं मिला। राजपरिवार ने निश्चित मुहूर्त पर पण्डितजी के साथ प्रस्थान कर दिया।
ब्रह्ममुहूर्त में धर्मदर्शी जो मन्दिर गया तो उसे पता तक न था कि राजपरिवार जा चुका है। जब कोई भक्त भगवान् के दर्शन करने के लिए आया तो उससे महाराज के प्रस्थान की सूचना धर्मदर्शी को मिली। सुनकर धर्मदर्शी को बड़ा आश्चर्स सुना, सह सका। पिर भी उसने पूछा कि जब राजपरिवार ने प्रस्थान किया, तब कितने बजे थे। उसे जो पता था, सो बताया। धर्मदर्शी ने कहा, "अच्छा हुआ। नवदम्पती की यात्रा का मुहूर्त बहुत ही अच्छा है।"
उस भक्त ने पूछा, "क्यों? आप अपनी बेटी को विदा करने नहीं गये?"
"कन्यादान के बाद समाप्त! फिर हम सदा भगवान् के सन्निधान में रहनेवाले। यहाँ की सेवा ठीक समय पर होती रहे तो हमें तृप्ति और सत्तोष होगा। वह बेटी भाग्यवती है। पालनेवाले मुझे भी उसने गौरवान्वित किया। स्वयं ने भी अच्छा स्थान पाया।"
"पालित-पुत्री के रानी बन जाने से ही आपको इतना गौरव मिला है, अगर औरस पुत्री ही रानी बनती तो आपका गौरव कितना बढ़ गया होता!"
"शान्तं पापं, औरस पुत्री को यों देने के लिए क्या मैं इतना हीन कुल का हूँ? मैं जन्मतः श्रीवैष्णव ब्राह्मण हूँ। मेरी पुत्री, किसी अन्य जातिवाले से विवाह करे? तब मेरे जन्म की श्रेष्ठता क्या रही होती ?"
"अब इस कन्यादान से आपकी पवित्रता पर कलंक नहीं लगा—ऐसा समझते
"हाँ तो, क्योंकि मैंने जिस कन्या को पाल-पोसकर बड़ा किया, उनके वंश का था जाति का पता मुझे ही नहीं।"
"फिर तो यह एक तरह से जात बिगड़ने पर भी सुख प्राप्त करने का ढंग हुआ। है न?"
"सच बात मैंने कह दी। जो हुआ है सो दनिया जानती है। चाहे कोई भी किसी भी तरह की राय रखे। मैं तो कृतार्थ हुआ। भगवान् ने कन्या दी, उसे एक अच्छी जगह दान कर दिया।"
"ठीक है धर्मदर्शीजी, तो आप मूर्तिप्रतिष्ठा के समय वेलापुरी जाएंगे न?"
"अभी यह कैसे कहूँ ? भगवान् की जैसी इच्छा होगी। उसकी इच्छा कौन जान सकता है।"
"यादवपुरी में प्रचार है कि आप वहाँ धर्मदर्शी बनकर जाएंगे।" "बड़ी अजीब बात है।" "सुना कि आप ही ने यह बात देशिकाचार्यजी से कही।"
पट्टयहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 393