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________________ "राजमहल से कोई बुलावा आवे तो?" "ऐसी कोई सम्भावना नहीं है।" "फिर भी यदि बुलावा आ जाए तो मुझे क्या कहना होगा?" "मैंने तुमसे जो कहा है. वहीं कहो। छिपाना क्या?" "ठीक...परन्तु?" "परन्तु क्या?" "मैं तो केवल दास ठहरा। राजमहल को सूचना देकर जाना अच्छा होगा। यही मुझे लगता है।" "मुझे किसी ने खरीद तो नहीं लिया।" कुछ कड़ी बात की स्थपति ने। मंचणा का चेहरा बुझ-सा गया। फिर भी एक-दो क्षण ठहरकर कहा, "पट्टमहादेवीजी के मन में आपके लिए बहुध आदर है। फूल को तरह आपकी देखरेख करने का मुझे आदेश है। आप अकेले अन्यत्र कहीं चले जावें तो वे समझेंगी कि मैंने अपना कर्तव्य पालन नहीं किया। मुझपर क्रोध करेंगी। इसलिए मैंने यह निवेदन किया था। लेकिन आपको इच्छा। आगे खाई, पीछे खड्डा, यही है स्थिति मेरी। दोनों स्वामी हैं। दोनों को तृप्त रखना है। यह सेव- कार्य, राजमहल का या कलाकार का है बहुत कठिन। नपा-तुला व्यवहार होना चाहिए।" "तो क्या मुझसे तुम्हें कोई कष्ट पहुँचा है?" "आपका मन न जाने कब कहाँ क्या सोचता होता है? क्या कल्पना करता होता है ? ऐसे समय पर आपसे बात करें तो क्या हो, न करें तो कैसा हो; यह शंका हो जाती है। हमारे प्राण निकल जाते हैं। परन्तु यह सब आपको अनुभव नहीं होता। केवल दास ही इसे अनुभव कर सकते हैं।" "अब क्या करने को कहते हो?" "जैसी आप आज्ञा दें।" "मैं तो-पहले ही जैसा कहा जाऊँगा। फिर तुम जाकर राजमहल को समाचार दे दो। कहीं भी होऊँ सुबह तक आ जाऊँगा, यही कहो।" मंचणा कुछ नहीं बोला, चुप रहा। "क्यों नहीं बोलते। मैं जो कह रहा हूँ, ठीक है न?" "आपकी दृष्टि में ठीक है।" "तुम्हारी राय में ठीक नहीं?" इतने में बाहर से घोड़े के आने और वहीं रुकने का शब्द सुनाई पड़ा। मंचणा बाहर की ओर दौड़ पड़ा। राजमहल का पत्रवाहक बीरण घोड़े से उतरकर द्वार की ओर आ रहा था। मंचणा को देखकर उसने पूछा, "स्थपतिजी क्या कर रहे हैं? उनका भोजन और विश्राम हो चुका हो तो आकर सन्निधान पट्टमहादेवी शाम्तला : भाग तीन :: 327
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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