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चाहिए। ऐसा उपाय सोचना है।" माचण ने कहा।
"परन्तु चट्टला- मायण की बात न होती तो हमें सोचने का समय मिलता।'' बम्मलदेवी ने कहा।
'हमें जो समाचार मिला है उसके अनुसार चोलों को निश्चित रूप से पता नहीं कि वे हमारे गुप्तचर हैं। केवल अनुमान मात्र है। इसो से उन्हें बन्द कर रखा है। मायण अकेला होता तो डरना था। उसके साथ चट्टलदेवी भी है, इसलिए मुझे लगता है कि वे किसी-न-किसी युक्ति से छूटकर आ ही जाएँगे। चट्टलदेवी इल में बहुत क्रुराज है। परि घड़ी :ती:: फना ही अच्छा है।" पुनीसमय्या ने कहा।
"सच है, चट्टलदेवी अत्यन्त प्रत्युत्पन्नमति हैं। परन्तु वे अपने आप छूटकर आएँगे-यह सोचकर हम चुप बैठे रहे, यह ठीक होगा?" बम्मलदेवी ने कहा।
"बहुत समय तक प्रतीक्षा करने की बात मैं नहीं कह रहा हूँ। उसको भी कुछ समय देना चाहिए। इतने में हम एक काम और करें। हम एक पत्र भेजें। 'गंगों के राज्य में बसने का चोलों के लिए कोई नैतिक अधिकार नहीं। न्याय्य रीति से गौरव के साथ उस जगह को छोड़ दें तो जीवित अपने देश को लौट सकते हैं। नहीं तो कावेरी आप लोगों के रक्त से लाल होकर आपके देश में बहेगी।' इतना लिख भेजना पर्याप्त होगा। शरण में आएँ तो ठीक, नहीं तो आक्रमण तो करना है ही।" पुनीसमय्या ने कहा।
"हमारी सेना उनकी दस सहस्र सैन्य का सामना करने में समर्थ तो है ही, इसलिए पुनीसमय्याजी के कहे अनुसार आदियम के पास सन्देश भेजेंगे।" गंगराज ने निर्णय सुना दिया।
"सन्निधान ने कुछ कहा नहीं?' बम्पलदेवी ने कहा।
"प्रधानजी ने निर्णय किया है। इस युद्ध के वे ही सूत्रधार हैं। उनका निर्णय हमें मान्य है। आज ही रात को हमारे गुप्तचर जितनी संख्या में हो सकें, तलकाडु में प्रवेश करें और अपना कार्य प्रारम्भ कर दें। कल आदियम को पत्र मिल जाय।" बिट्टिदेव ने निर्णय की पुष्टि कर दी।
उसी तरह कार्य सम्पन्न हुआ। आदियम ने उत्तर में कहला भेजा, "मनमाना बकनेवाले उस बिट्टिगा की बकवास से हम डरनेवाले नहीं।"
यो सूचना मिलने के बाद तुरन्त निर्णय हुआ-आक्रमण! उधर चट्टलामायण पहले राजाधिराज चोल की धर्मशाला में ले जाए गये। सात-आठ दिन तक वे चुपचाप वहाँ पड़े रहे। किसी ने उन पर ध्यान नहीं दिया। समय पर उन्हें भोजन आदि मिल जाता। एक दिन दामोदर आया तो चट्टला ने पूछा, "हमारा सब सामान गंगराज की धर्मशाला में रह गया।"
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 283