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जैसे के लिए योग्य नहीं ।"
"तो फिर महासन्निधान की विजय यात्रा पर निकलने के मुहूर्त के बारे में आपने कैसे बता दिया था ?1
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" बात यहाँ तक पहुँच गयी ?" कहकर उसने रेविमय्या की ओर देखा और कहा, उस समय अचानक मेरे अन्तरंग को वैसा सूझा, कह दिया। वह प्रेरणा स्वप्रयत्न से नहीं हुई। इस तरह की प्रेरणा में सत्य शक्ति होती है। प्रयत्नपूर्वक सिद्धि प्राप्त करना हो तो क्रियाशुद्धि औपासनिक सिद्धि मनःशान्ति- इन सबकी आवश्यकता होती है।"
'मैंने अपनी अभिलाषा बता दी है। जब आपका जन्मपत्री देखकर कहने की प्रेरणा हो तब कह सकते हैं, इसमें शीघ्रता नहीं। आप अन्यथा न समझें कि मैं आपके स्वयं का विषय पूछ रही हूँ। आप इन दो दिनों तक यहाँ ठहरे क्यों नहीं ? कहाँ गये थे?"
" कहना ही होगा ?" उसके चेहरे पर एक विषाद की छाया आ गयो । "कोई विवशता नहीं । कुतूहल हुआ। राजमहल के अतिथि बनकर रहने के लिए कहने पर लोग उत्साह से भर जाते हैं। ऐसे ही लोगों को हमने देखा हैं। परन्तु आपकी रीति न्यारी है इसलिए आश्चर्य हुआ। इसीलिए पूछा ।"
'मैं लोगों के सम्पर्क से ही बचना चाहता हूँ। दस लोग जहाँ इकट्ठे हुए, हर एक अपनी बात कहेगा। स्वेच्छा से बात करते समय, बातों का कोई ठौरठिकाना नहीं रहता। बातें किस ओर बढ़ेंगी इसका भी कुछ पता नहीं लगता । इसलिए जब कोई काम नहीं होता तब मैं एकान्त को ही पसन्द करता हूँ ।" "सो तो ठीक है। अभी आपकी बात नहीं। मेरे सामने एक समस्या उठ खड़ी हुई है। मैं सदा उन्मुक्त हृदय से सभी बातों पर विचार करती हूँ। मेरे गुरु ने मुझे यही पाठ पढ़ाया। कल्पनाबिहारी कलाकार अभिव्यक्ति स्वातन्त्र्य को बढ़ा ले जाय तो सम्भव है कि वह अधिक हठी जो जाय । सामूहिक रूप से होनेवाले कार्य में इस तरह के हठ का फल क्या होगा ? इससे कई तरह की कठिनाइयों उत्पन्न नहीं हो जातीं ?" "क्या सन्निधान को ऐसा लगा है कि मुझमें ऐसा हठीलापन है।"
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" मैं किसी व्यक्ति के विषय को लेकर नहीं कह रही हूँ। इतना ही कहा कि उसके रहने पर काम में कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं। कला का उपयोग सौन्दर्य की सृष्टि में है। सौन्दर्य की सृष्टि में सुरुचि स्पष्ट दिखनी चाहिए। मन को आनन्द मिलना चाहिए। वहाँ कुत्सित विचारों के लिए अवकाश या उस कला से निम्न स्तर की रुचि को बल नहीं मिलना चाहिए। आपकी क्या राय हैं ?"
" रुचि संस्कार का फल है। सुन्दर वस्तु को देखकर उसकी सुन्दरता से सन्तुष्ट होकर खुश होनेवाले लोग भी हैं। ऐसा चाहनेवाले लोग भी हैं कि काश यह
पट्टमहादेवांशान्तल भाग तीन 253