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________________ देना उचित समझता हूँ। माँ-बाप को एक साथ मैंने खोया; ऐसे अनाथ बच्चे का पालन-पोषण इस राजमहल ने किया। मेरे माँ-बाप की एकनिष्ठता का फल मुझे मिला। यह राजमहल की कृपा है राजमहल के प्रेम ने मुझे 'अहं' की ओर अग्रसर किया। अपने वयोधर्म के अनुसार शीघ्रता से संकुचित बुद्धि से मैंने व्यवहार किया। हमारी पट्टमहादेवी ने इस तरह की भावना का निवारण करके कर्तव्य की ओर प्रेरित कर मुझे उस कर्तव्य के अनेक पहलुओं का साक्षात्कार कराया है। 'अहं' को दूर करके कर्तव्य की ओर अग्रसर होने की प्रवृत्ति, मुझमें उन्होंने जाग्रत की। आपके समक्ष अपनी भूल को स्वीकार करते हुए मुझे कुछ भी संकोच नहीं हुआ। भूल करनेवाले को चिन की शुद्धि के लिए दूसरा मार्ग नहीं है। इससे व्यक्ति निर्भय होता है और कार्यनिष्ठा की ओर प्रवृत्त होने के लिए मन तैयार होता है। आज राजमहल सभी शिल्पियों से इस मन्दिर निर्माण में इसी कार्य निष्ठा की अपेक्षा रखता है। मेरी बालबुद्धि के इन अपरिपक्व, विश्रृंखल विचारों में कुछ प्रकृत अप्रकृत उल्टी-सीधी बातें होंगी। आप लोग क्षमा कर, उसमें से मुख्य विचार ग्रहण करें। पट्टमहादेवीजी आप लोगों के विचारों को समझना चाहती हैं।" इतना कहकर बिट्टियण्णा ने अपना वक्तव्य समाप्त किया । उसके बोलने की गति, आवेग, भावनाओं के उतार चढ़ाव - आदि को शान्तलदेवी ने ध्यान से देखा। एक सन्तोष को लहर उनके मन में उत्पन्न हुई। उन्होंने कभी यह न सोचा था कि वह इस तरह विचार व्यक्त कर सकेगा। उदयादित्य ने जो बातें बतायी थीं उनकी ओर इंगित कर यह बताने का आदेश था कि राजमहल शिल्पियों में कोई ऊँच नीच या श्रेष्ठ अश्रेष्ठ की भावना नहीं रखता और उसकी दृष्टि में सभी बराबर हैं। उस आदेश से भी अधिक वह कई बातें कह गया। परन्तु शिल्पियों ने एकाग्र भाव से उसकी बातों को सुना। बातें समाप्त हुई, फिर भी किसी ने कुछ नहीं कहा। थोड़ी देर के बाद शान्तलदेवी ने स्थपति से पूछा, "आपकी क्या राय है ?" "विचार तो बहुत ही उत्तम हैं। परन्तु काम करने और करानेवाले दोनों समान माने जायँ तो करानेवाले की बात करनेवाले मानें ही क्यों ? जब इस तरह की भावना उत्पन्न हो जाय तो एकता की साधना कैसे होगी ?" स्थपति हरीश बोला । LI 'उसे कैसे साधना चाहिए ?11 " करानेवाला कड़े, करनेवाला उसकी आज्ञा मानकर करे। दण्डनायक के आदेशानुसार सेना न चले तो युद्ध की क्या दशा होगी ?" "वहाँ लक्ष्य केवल एक है। शत्रुओं को मार गिराना, उसे निर्मूल कर देना । परन्तु यहाँ कला की सृष्टि है। कल्पना का विलास है। वैयक्तिक प्रतिभा प्रदर्शन हैं। वैविध्य को छूट हैं। आत्मानुभूति और आनन्द के लिए स्थान है। कल्पित सौन्दर्य 1 250 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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