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________________ ठीक। जनमे; मरने तक जीना है। मरने के बाद को भी, मुझे कोई इच्छा नहीं। किसी तरह दिन गुजारना है, कल की चिन्ता नहीं। यही मेरी रीति हैं। इस दुनिया के मोह को मैंने छोड़ दिया है। कागत आनुशक वृति का मोह अनः पुनः छूटा नहीं। पत्थर से खेलने, उसमें सौन्दर्य की साधना करने, जड़ में चैतन्य भरने की इस प्रवृत्ति ने मन की शान्ति के लिए कारण बनकर जब कभी आत्मघात से मुझे बचाये रखा है। फिर भी मेरा स्वभाव एक तरह से कड़ा है, कुछ टेढ़ा भी कहा जा सकता है। ऐसे बड़े स्थान में जाकर कुछ कह बै, तो वह महापाप होगा। मैं अपने को अच्छी तरह जानता हूँ। इसलिए मुझे क्षमा कर दें तो मैं अत्यन्त उपकृत होऊँगा।" "आपको आपसे भी बढ़कर पट्टमहादेवी जानती हैं।" "सो कैसे?" "आइए, मालूम हो जाएगा। साथ ही उनका दर्शन करने में अखण्ड लाभ भी होगा।" "मुझे धन की आवश्यकता ही नहीं है।" "लाभ के माने केवल धन ही नहीं।" "कोई आशा-आकांक्षा ही न हो तो लाभ की ओर ध्यान ही क्यों हो?" "मैं श्रेष्ठ हूँ, विश्वसनीय हूँ, बुद्धिमान् हूँ, मुझे कोई आशा नहीं, सत्यवान हूँ-आदि-आदि कहते जाने से उसका कोई मूल्य नहीं होता। इन्हीं बातों को दूसरे लोग कहें तब उसका मूल्य होता है। इसलिए इस बात को पट्टमहादेवी से कहलवाइए। वही एक बहुत बड़ा लाभ है। वे आपकी प्रतीक्षा कर रही हैं। हम यहाँ जिज्ञासा करने बैठे तो समय फिजूल नष्ट होगा। आइए। मुझसे भी अधिक मिलनसार पट्टमहादेवीजी के साथ आप किसी भी विषय पर चर्चा कर सकेंगे। आइए, आइए।" कहते हुए उनकी ओर देखते हुए आगे बढ़े उदयादित्य । "हाँ," कहते हुए शिल्पी ने उनका अनुसरण किया। राजमहल के महाद्वार पर के द्वारपालक सैनिकों ने उदयादित्य के प्रति जो गौरव दिखाया उसे देख यह शिल्पी चकित हो गया। उसने यह भी देखा कि उन सैनिकों ने उसके ऊपर कुतूहल भरी दृष्टि डाली है। उसने अपने बिखरे बाल यों ही सँवार लिये। अंगवस्त्र को ठीक से ओढ़ लिया, ऊपर चढ़ायी धोतो की नीचे सरकाया। राजमहल के भव्य महाद्वार की ओर सीढ़ी चढ़ते हुए देखा कि द्वार के ऊपर पोयसल लांछन उत्कीर्ण है। उसी पर उसको दृष्टि टिक गयी। तब तक उदयादित्य महाद्वार को ड्योढ़ी पर पहुँच चुके थे। । घण्टी बजी। शिल्पी ने अपने शरीर को एक बार झाड़ा। चकित दृष्टि से उदयादित्य को और देरखा। पट्टमहादेव प्रान्तला : भाग तीन :: 715
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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