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बहुत ही आवश्यक है। कितनी दूरदर्शिता की बात है! अच्छा अब आगे का कार्यक्रम चले।" जनार्यजी से कहा।
नागिदेवण्णा ने समझा था कि यह बात पेचीदा बन जाएगी, लेकिन वह आसानी से एक तरह से हल हो गयी। कार्यारम्भ हुआ।
पहले आचार्यश्री की प्रशंसा में रचित स्तोत्रमाला सुश्रव्य कण्ठ से स्वयं रचयिता कवि मौक्तिक ने गाकर सुनायी।
खाद को नागिदेवपणा ने पिछले दिन से कुछ अधिक लम्बा भाषण दिया। आचार्यजी के स्वागत करने के बहाने यत्र तत्र अपने विशिष्ट विचार भी इसी सिलसिले में कहते जाते । अपने ऊपर भारी जिम्मेदारी लेकर आचार्यजी का परिचय प्रभु और पट्टमहादेवीजी से कराया न होता तो राजकुमारीजी की बीमारी इतनी जल्दी शायद दूर न हुई होती। चाहे जो भी हो, आचार्यजी पर हमने जो विश्वास रखा, वह सार्थक हुआ। इतना कहकर अनुग्रह - भाषण के लिए आचार्यजी से प्रार्थना की। आचार्यजी ने अपनी गम्भीर वाणी में बड़े आकर्षक ढंग से अपने उद्देश्यों को स्पष्ट किया। उन्होंने जो कुछ कहा वह लोगों की समझ में आया या नहीं, कहना कठिन है। फिर भी लोग श्रद्धा और लगन के साथ बैठे शान्तचिस सुनते रहे । क्लिष्ट विषय आम लोगों की समझ में आसानी से आ जाए- इस ढंग से कहना कठिन है। फिर भी, आचार्यजी ऐसे विषयों को बताते समय आम लोगों के दैनिक जीवन से सम्बन्धित अनुभवों के उदाहरण देकर हृदयंगम कराते जाते
थे ।
अपने सिद्धान्त के लिए प्रस्थानत्रय को ही आधार बताकर, उसका अर्थ विवरण देकर, स्वयं जिस मार्ग का अनुसरण कर रहे हैं उसे समझाकर, अद्वैत और विशिष्टाद्वैत इन दोनों में वास्तविक अन्तर क्या है— सो समझाया। कहा - अद्वैत केवल ज्ञान पर आधारित है; केवल एक ही शाश्वत हैं, दूसरा कुछ नहीं; वही 'ब्रह्म' हैं; शेष जो भी दिखता है, वह सब मिथ्या है। इतने दृढ़ और निश्चित ज्ञान के लिए चिन्तन की एक बहुत ही मजबूत नींव होनी चाहिए। वह बहुत ही क्लिष्ट मार्ग है। इसीलिए भक्ति ही हमारे सिद्धान्त का मूल आधार हैं। इस बात को विस्तार के साथ समझाया।
सर्वश्रेष्ठ परतत्त्व पृथक् है । उस परतत्त्व का साक्षात्कार ही मोक्ष है। मोक्षाकांक्षा का जीवराशि में होना स्वाभाविक है। इसलिए इस आकांक्षा को रखनेवाली जीवकोटि पृथक् है। मोक्ष साधक परतत्त्व पृथक् है । उस मोक्ष साधना के लिए भक्ति ही राजमार्ग है - इस बात को सुन्दर ढंग से समझाया। इसके लिए जो नया रूप दिया गया है - इसे समझाने के लिए उन्होंने अनेक दृष्टान्त दिये ।
" हर परिवार में सन्तान और माता-पिता होते हैं न कुछ कार्य ऐसे होते
174 पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन