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________________ तुरन्त उसने आचार्यजी के चरणों में दण्डवत् किया, क्षमा-याचना की। कहा, ''अपनी जीभ को किस तरह वश में रखना चाहिए-यह पाठ आज इससे सीखा।" एम्बार की पीठ पर हाथ फेरते हुए आचार्य बोले, "उठो, एम्बार । यह सब भूल जाओ। कदम-कदम पर होनेवाला अनुभव ही 'गुरु' है। अपनी गलती को समझकर स्वीकार कर अपने को सुधारने की कोशिश करनेवाला हा सच्चा मानव बनने के रास्ते पर चलता है। मन्त्रीजी आएंगे, उन्हें भोजन के लिए यहीं ठहराएँ। अच्चान से जाकर कहो। यह भी स्वस्थ चित्त हो जाय। नहीं तो रसोई की रुचि को बिगाड़ देगा। मन्त्री भोजन के विषय में काफी रसिक हैं। कल ही राजप्रासाद में हमने देखा है । जाओ. पता नहीं, मन्त्रीजी के साथ और कौन-कौन आएँगे। चार-छ: लोग आ भी जाएँ, इतना तो खाना तैयार रहे।" एम्बार उठकर स्वस्थ चित्त हो पाकशाला की ओर चल पड़ा। आचार्यजी ने जो बताया सो सब अच्चान को एम्बार ने सुना दिया। इससे उसे भी कुछ तसल्ली मिली। अब उसका ध्यान रुचिकर भोजन तैयार करने की ओर लग गया। एम्बार भण्डारघर की और जाकर जो सामान राजमहल से आया था, उसको एक बार देखकर बाहर आया। इतने में मन्त्रीजी की पालकी मन्दिर के द्वार पर उतरी। उसने यह सूचना गुरु जी को दी और उपरने को कमर में कसकर मन्त्री की अगवानी करने के लिए द्वार की ओर दौड़ा। हाथ जोड़े, स्वागत किया। सचिव नागिदेवण्णा ने भी मुस्कुराते हुए प्रति नमस्कार किया। "आचार्यजी के जप-तप, पूजा-पाठ सब समाप्त हुए न?" "समाप्त हो चुके, अब आपके आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं।" "मेरा अहोभाग्य!" दोनों परदे के अन्दर गये। आचार्यजी ने हँसमुख हो स्वागत किया। नागिदेवण्णा ने दण्डवत् किया। उसके बाद वे एक आसन पर विराज गये। आचार्यजी ने कहा, "एम्बार नागिदेवण्णाजी के लिए कुछ गरम दूध ले आ।" एम्बार चला गया। . . . 'पी चुका हूँ। अन क्यों? नहीं चाहिए।' कहना चाहते थे, परन्तु इनकार करना ठीक नहीं जंच रहा था। इसलिए चुप रहे। आचार्यजी ने कहा, "आज आप सुबह-सुबह आएँगे, ऐसी कल्पना भी नहीं थी।" "क्यों? "कल आप कार्यभार के कारण बहुत थक गये होंगे।" 168 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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