________________
उन्होंने उस सम्बन्ध में अपना अभिमत स्पष्ट किया है। यदि व्यापक दृष्टि से देखा जाए तो उनके अभिमत का कुछ अर्थ भी है। परन्तु चोल राजवंशियों ने प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी तरह से हमें कष्ट दिया ऐसा विचार करना गलत होगा। ऐसी भावना का होना संन्यासी के लिए उचित नहीं। इसके अलावा ऐसा कहेंगे तो उन बातों की प्रतिक्रिया कुछ उल्टे ही ढंग से कुपरिणामदायिनी भी हो सकती है। परिस्थिति चाहे कुछ भी हो, शान्ति श्रेय और विश्व-प्रेम ही को चाहनेवाले हम इन बातों के बारे में विचार ही नहीं करते। इस सन्दर्भ में एक बात आप लोगों के समक्ष स्पष्ट कह देना चाहते हैं। हम अपनी अन्तरात्मा की प्रेरणा के अनुसार चलनेवाले हैं। अन्ध-स्वार्थ, वैयक्तिक झगड़ों को देख-देखकर हमारा मन दुःखी था. हम मानसिक शान्ति चाहते थे उसी की खोज में हम इधर आये। सबकी कल्याण-कामना करनेवाले हम आप और आपके राज्य के लिए शुभ-कामना करते हुए भगवान् नारायण से प्रार्थना करेंगे। भूलकर भी हम कभी किसी की अशुभ-कामना नहीं करते। " - यों कहकर बगल में ही बैठी राजकुमारो पर दृष्टि डाल उसका सिर सहलाते हुए, अपनी बात को आचार्यजी ने आगे बढ़ाया
"यह पुण्यमयी राजकुमारी, हमारे अपने गुरुवर्य के द्वारा दत्त सर्वरोगहर चूर्ण से स्वस्थ हुई हैं। वास्तव में इन राजदम्पतियों के पुण्य प्रभाव से, यहाँ की प्रजा के राज-प्रेम के रक्षा कवच की महिमा से यह शुभ फल प्राप्त होना ही चाहिए था। अगर हम न आते तब भी वह फल अवश्य ही मिलता, इस विषय में रंचमात्र भी बांका नहीं करनी चाहिए। परन्तु ऐसे एक पर्व के समय भगवान् नारायण ने इस रोग की चिकित्सा करने के लिए हमें प्रेरित किया - निमित्त मात्र के लिए। यह हमारा सौभाग्य है। हमारी समस्त सेवा महाविष्णु के चरणों में समर्पित है। हमारा सम्पूर्ण जीवन ही इस तरह की सेवा के लिए धरोहर हैं। इसलिए इस अम्बा का रक्षक हरि हो है, हम नहीं। केवल निमित्त मात्र के लिए, हमसे यह कार्य हुआ तो भी इस सबको हमारी ही शक्ति का फल मानकर, अत्यन्त उदारता से प्रभूत दान देकर महाराज ने अपनी उदारता का परिचय दिया है। हमने अपने भगवान् का पहले ही परिचय दे दिया है। इसलिए इस समस्त दान को नारायणार्पित मानकर उस सबकुछ को उसी की सेवा के लिए धरोहर के रूप में रख छोड़ते हैं। हम पर सबका प्रेम विश्वास सदा-सर्वदा बना रहे. इसके लिए हम प्रार्थना करेंगे इतना कहकर आँखें बन्द करके आचार्यजी ने हाथ जोड़े।
11
4
उपस्थित सब लोग मन्त्रमुग्ध की तरह बैठे रहे। आचार्य की वह वाणी मानो सभी के हृदय की पुकार थी। आचार्यजी की वाणी के बन्द होते ही, सब सचेत से
144 :: पट्टमहादेश्री शान्तला भाग तीन
: