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18-19 वर्षों से कर्नाटक लेखक संघ में, मिथिक सोसाइटी आदि संस्थाओं में मेरे साथ रहकर मेरे संशोधन कार्य में प्रोत्साहन देनेवाले मित्र श्री एम.वि. कृष्णमूर्ति, श्री तो. सु. सुब्रह्मण्यम्, श्री डी.एन. शेषाद्रि, श्री के. एस. सूलिबेले (इसी जनवरी में हमसे बिछुड़ गये) इनको, मेरे सभी कार्यों में आत्मीय भावना से सहायता करनेवाले श्री एच.जि, शितिकण्ठ शर्मा को स्मरण करना मेरा प्रथम कर्तव्य है। यह सारा सहयोग ही तो मेरी कृतिरचना का मूल है।
इसे मुद्रण के लिए देने पाण्डुलिपि तैयार करने का कार्य भी मुख्य था। परिस्थितियाँ कैसे बदली हैं, इसके लिए एक छोटा-सा उदाहरण दूँ-1937 में मेरे प्रथम कथा-संग्रह 'काडुमल्लिगे' प्रकाशित हुआ। मात्र 72 पृष्ठों की पुस्तक। उसकी एक हजार प्रतियों के लिए सारा खर्च, कागज, कम्पोजिंग, मुद्रण और बाइण्डिग मिलाकर, 75 रुपये मात्र । अब 1977 में इस उपन्यास की पाण्डुलिपि तैयार करने के लिए खरीदे हुए काग़ज़ का दाम 77 रुपये। मेरे चालीस वर्ष के पुस्तक-जगत् के जीवन का यह परिवर्तन है। कैसी महती प्रगति है यह?
इसकी हस्तप्रति करने का काम, आलस्य के बिना, उत्साह से अपने में बाँटकर मेरे पुत्र-पुत्री, सौ. शोभा, सौ. मंगला, सौ, गीता, सौ. शाम्भवी, कुमारी राजलक्ष्मी तथा कुमार सर्वेश ने किया है। और मुद्रण के प्रूफ संशोधन के काम में भी सहायता की है। उनकी सहृदयता का स्मरण कर उनके प्रति शुभकामना करता हूँ।
हस्तप्रांत सिद्ध होने पर भी उसका प्रकाशन-कार्य आसान नहीं। उपन्यास का स्वरूप सुनकर ही प्रकाशकों का उत्साह पीछे हट गया। किस-किसने क्या-क्या प्रतिक्रिया जतायी यह अप्रकृत है। इस उपन्यास का मुद्रण प्रकृत है। यह कैसे होगा, इस चिन्ता में रहते समय मुझे उत्साहित कर प्रेरणा देनेवाले थे-केनेडा में रहने वाली मेरी पुत्री सौ. उषा तथा जामाता चि. डॉ. बि.के, गुरुराजराव । उनके प्रोत्साहपूर्ण अनुरोध से मैंने इस उपन्यास का प्रकाशन कार्य स्वयं करने का निर्णय किया। आर्थिक सहायता के लिए प्रयल किया। एक संस्थान ने सहायता मिलने की सम्भावना सूचित कर, मुद्रण कार्य प्रारम्भ करने के लिए भी प्रोत्साहित कर चार महीनों के बाद सहायता न कर पाने के अपने निर्णय से सूचित कर दिया। भँवर में फंस जाने जैसी हालत थी। आगे जाना अशक्य श्रा, पीछे हटना आत्मघात था।
ऐसी विषम परिस्थिति में मेरी प्रार्थना स्वीकार कर, मुझ पर भरोसा कर प्रकाशन-पूर्व चन्दा भेजनेवालों को मैं क्या उत्तर दे सकता था? उनके बारे में मेरे हृदय में कृतज्ञता भरी थी। लेकिन कृतघ्न बनने का समय आ गया था।
मेरा प्रयत्न प्रारम्भ से ही श्रद्धापूर्ण था, सत्यनिष्ठ था। मैंने अपने कुछ मित्रों से परिस्थिति का निवेदन किया। श्री एच.एस. गोपालन, श्री रामराव, श्री एम.के. एस. गुप्त, मेरा पुत्र चि. एन. गणेश आदि ने मुद्रण कार्य न रुकने में मेरी सहायता की। अन्त
तेरह