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________________ "कहीं अगर फिसल जाएँ तो हड्डी तक नहीं मिलेगी?" "यदि ऐसा है तो क्षेत्र-मरण होगा। अच्छा हो है न?" "ऐसा विश्वास है तो चढ़ने में कोई हर्ज नहीं।' सब चढ़ चले। माचिकब्बे भी पीछे न रही। संक्रान्ति के दिन पहाड़ के शिखर पर जलोद्भव होनेवाले तीर्थस्तम्भ को देखा। लेकिन पहाड़ी की चोटी पर के नन्दी की परिक्रमा के लिए माचिकळ्ये तैयार नहीं थीं, इतना ही नहीं, बिट्टिदेव और शान्तला को भी परिक्रमा करने से रोका । इसका कारण केवल डर था। क्योंकि नन्दी के चारों ओर परिक्रमा करनेवालों को पैर जमाने के लिए भ पयाप्त स्थान नहीं था, इसके अलावा चारों ओर गिरने से बचाने के लिए कोई सहारा भी नहीं था। नन्दी का ही सहारा लिया जा सकता था। थोड़ी भी लापरवाही हुई कि फिसलकर पाताल तक पहुंचेंगे। ऐसे कठिन परिसर में स्थित नन्दी को देखने मात्र से ऐसा लगता है कि बस दूर से ही दर्शनप्रणाम कर लें। स्थिति को देखते हुए सहज ही ऐसा लगता है। मरण कौन चाहता है ? फिर भी पाचिकच्चे की ममाही को किसी ने नहीं माना। सबने नन्दी की परिक्रमा की। आगे-आगे मारसिंगय्या, उनके पीछे बिट्टिदेव और उसके पीछे शान्तला, शान्तला के पीछे बोकिमय्या, गंगाचारी और उनके परिवार थे। इन सबके पीछे सेवकवृन्द ! मारसिंगय्या जो सबसे आगे थे. एक बार फांदकर नन्दी के पास के मूल पहाड़ पर जा पहुँचे। बिट्टिदेव भी फांदकर उसी मूल पहाड़ पर पहुँच गया। परन्तु शान्तला को ऐसा फाँदना आसान नहीं लगा। यह देख बिद्रिदेव ने हाथ आगे बढाये। उरके सहारे शान्तना भी फाँद गयी। फाँदने के उस जोश में सीधे खड़े न होकर वह जैसे विट्टिदेव के हाथों में लटक गयी । पास खड़े मारसिंगग्या ने तुरन्त दोनों को अपने बाहुओं में संभाल लिया। यदि ऐसा न करते तो दोनों लुढ़क जाते और घायल हो जाते । माचिकये ने स्थिति को देखा और कहा, "मैंने पहले ही मना किया था, मेरी बात किसी ने नहीं मानी।" "अब क्या हुआ?" मारसिंगय्या ने पूछा।। ''देखिए, दोनों कैसे काँप रहे हैं।'' व्यग्न होकर माचिकब्बे ने कहा। "नहीं तो।" दोनों एक साथ कह उठ। कहा तो सही। परन्तु उन दोनों में पुलकित कम्पन जो हुआ, उसने भय का नहीं, किसी अपरिचित सन्तोप का आनन्द पैदा कर दिया था। उसका आभास माचिकाचे को नहीं हुआ था। सभी सेवक-वृन्द परिक्रमा कर आये। इस क्षेत्र दर्शन का पुण्य फल प्राप्त करना हो तो यहाँ इस नन्दी की परिक्रमा अवश्य करनी चाहिए, सो भी प्राणों का मोह त्यागकर । यह आस्था सभी भक्तों में हो गयी थी और सभी इस विधान को आचरण में लाते थे। पट्टमहादळी शान्तला :: 8"
SR No.090349
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size8 MB
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